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पुरुषवाद और पुरुषकार ५१९ विचित्र क्रीड़ा के उपाय की वृत्ति में उस पुरुष की पहले से ही शक्ति है तो वह युगपत् ही समस्त जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय की रचना कर देगा। यदि उसके पास प्रारम्भ में शक्ति नहीं है तो क्रम से भी वह
उत्पत्ति-स्थिति-प्रलय को सम्पन्न नहीं कर सकेगा। १६. पुरुष यदि अबुद्धिपूर्वक ही जगत् निर्माण में प्रवृत्त होता है तो वह प्राकृत
पुरुष से भी हीन हो जाएगा।
उपनिषद् एवं वेदान्त दर्शन में ब्रह्म से जगदुत्पत्ति स्वीकार की गई है। आचार्य प्रभाचन्द्र (११वीं शती) ने प्रमेयकमलमार्तण्ड में ब्रह्मवाद के स्वरूप का उपस्थापन एवं निरसन किया है। उन्होंने जहाँ ब्रह्मवाद की सिद्धि में प्रत्यक्ष अनुमान और आगम प्रमाण दिए हैं वहाँ ब्रह्मवाद का सबल युक्तियों से निरसन भी किया है।
पुरुषवाद से जिस प्रकार ब्रह्मवाद का विकास हुआ उसी प्रकार ईश्वरवाद का भी विकास पुरुषवाद से मानना चाहिए। महर्षि गौतम ने न्यायदर्शन में ईश्वर को सर्वशक्तिमान् और सर्वज्ञ स्वीकार किया है। ईश्वर का ज्ञान नित्य है तथा वह सभी प्रकार की पूर्णता से युक्त है। ईश्वर न बद्ध है और न मुक्त। वह स्रष्टा और पालनकर्ता होने के साथ विश्व का संहर्ता भी है। पुरुष अर्थात् जीव के कर्मों की विफलता दृष्टिगोचर होने से ईश्वर की कारणता सिद्ध होती है। प्रयत्न करता हुआ भी जीव असफल होता है, जिसमें ईश्वरेच्छा ही उसकी नियामिका होती है। उदयन ने न्यायकुसुमांजलि में ईश्वरवाद की सिद्धि में अनेक साधक प्रमाण प्रस्तुत किए हैं। उनका सबसे बड़ा तर्क है कि जगत् भी एक कार्य है, इसीलिए उसका कोई न कोई स्रष्टा होना चाहिए और वह स्रष्टा ईश्वर है। उनके द्वारा दी गई युक्तियों का समाहार निम्नांकित श्लोक में ज्ञातव्य है
कार्यायोजनधृत्यादेः पदात्प्रत्ययतः श्रुतेः। वाक्यात्संख्याविशेषाच्च साध्यो विश्वविदव्ययः।।१८
ईश्वरवाद के निरसन में शीलांकाचार्य (८वीं शती) अभयदेवसूरि (१०वीं शती), प्रभाचन्द्राचार्य (११वीं शती) और मल्लिषेणसूरि (१२९३ ई.शती) ने अनेक तर्क दिए हैं। सांख्यतत्त्वकौमुदीकार वाचस्पति मिश्र ने भी ईश्वरवाद का खण्डन किया है। १. सूत्रकृतांग के टीकाकार शीलांकाचार्य ने ईश्वरवादियों से प्रश्न किया है कि
ईश्वर स्वत: ही दूसरों को उनकी क्रियाओं में प्रवृत्त करता है या दूसरों के
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