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________________ ५१० जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण संवर एवं निर्जरा में पुरुषार्थ की उपयोगिता नवीन कर्म का बंध न करने में मानव का वर्तमान पुरुषार्थ अत्यन्त उपयोगी है। वह चाहे तो संयम की साधना के साथ आस्रव के निरोध रूप संवर का आराधन कर सकता है। पूर्वबद्ध कर्म यथाकाल उदय में आते हैं। किन्तु जो उनके उदयकाल में राग-द्वेष से रहित होकर समभाव का अभ्यास करता है वह नवीन कर्मों के बंध को न्यून कर सकता है। यही नहीं पूर्वबद्ध कर्मों को संयम और तप की साधना के द्वारा निर्जरित भी कर सकता है। संवर और निर्जरा की साधना मोक्ष की प्राप्ति में प्रमुख कारण है। इस साधना में अन्य कारणों के साथ जीव का पुरुषार्थ प्रधान कारण है। यही भगवान महावीर के उपदेशों का सार भी है। अपने अशुभ भावों को शुभ में परिणत करने का कार्य आत्म पुरुषार्थ के बिना संभव नहीं है। इस पुरुषार्थ के द्वारा भविष्य में उदय में आने वाले कर्मों को पहले उदय में लाने रूप उदीरणा भी संभव है। मन-वचन-काया तथा पाँच इन्द्रियों पर संयम रखने का दायित्व जीव का ही है। इसमें उसका पुरुषार्थ निहित है। संयम की साधना से संवर एवं तप की साधना से निर्जरा स्वतः होती है। इसका सजगतापूर्वक आराधन बिना पुरुषार्थ के संभव नहीं है। शरीरादि की प्राप्ति में पुरुषार्थ की कारणता संसार के सभी जीवों को शरीर स्व पुरुषकार से प्राप्त होता है, न कि अन्य हेतु से। अत: कहा है जीवप्पबहे! एवं सति अस्थि उट्ठाणे ति वा, कम्मे ति वा। बले ति वा, वीरिए ति वा, पुरिसक्कार-परक्कमे ति वा।।१० शरीर जीव से उत्पन्न होता है। ऐसा होने में जीव का उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषाकार-पराक्रम कारण होता है। अत: जीव स्वयं (शरीर) का कर्ता है। कर्म सिद्धान्त में पुरुषार्थ का स्थान पुरुषार्थ से बद्ध कर्मों में भी परिवर्तन संभव है। यह परिवर्तन कर्म की निम्न अवस्थाओं में माना जाता है- उद्वर्तना, अपवर्तना, उदीरणा और संक्रमण। उदवर्तना का अर्थ है- कर्मों की स्थिति में वृद्धि और अनुभाग में तीव्रता लाना। अपवर्तना में कर्मों की स्थिति कम हो जाती है और विपाक मन्द पड़ जाते हैं। उदीरणा के द्वारा व्यक्ति बाद में उदय में आने वाले कमों को खींचकर समय से पहले ही उदय में लाकर खपा देता है। ये तीनों अवस्थाएँ जैन दर्शन में पुरुषार्थ को प्रतिपादित करती हैं। पुरुषार्थ द्वारा कर्म-परिवर्तन का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है- संक्रमण। संक्रमण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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