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४७४ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण का अर्थ ज्ञान भी है- तद्धि रूपणं रूपं ज्ञानमेव। वह ज्ञान ही रूप, रस, गंध, शब्द, स्पर्श आदि की दृष्टि से अलग-अलग को ग्रहण करता है तथा अविभक्त रूप में भी ग्रहण करता है।६१
एक ही चैतन्य रूपादि में विभक्त होकर भी अविभक्त है, क्योंकि वह वैसा ही अनुभव में आता है। चैतन्य से भिन्न अर्थ की अनुपपत्ति होने के कारण ज्ञान स्वरूप आत्मा ही ग्राह्य और ग्राहक होता है।६२ जिस प्रकार शरीरादि को और बाह्य अर्थों को न्याय-वैशेषिक मत से जानता हुआ भी जीव स्वयं को जानने में अन्य प्रमाण की अपेक्षा नहीं रखता, इसी प्रकार रूपादि भेद से और ज्ञान-सुखादि के भेद से एक ही आत्मा विपरिवर्तमान होता है।६३
पुरुष की सर्वात्मकता से सर्वज्ञता की सिद्धि-बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष आदि तथा काल, आकाश, दिक्, आत्मा आदि अमूर्त-सूक्ष्म हैं और रूपादि स्थूल है। इन बुद्धि आदि सूक्ष्म और रूपादि स्थूलों का अपरिदृष्ट (अदृश्य) पुरुष में समावेश हो जाता है। जिस प्रकार दूध धेनु में अत्यन्त अपरिदृष्ट है, फिर भी धेनु से उसकी अभिव्यक्ति होती है, उसी प्रकार समस्त अपरिदृष्ट चेतन-अचेतन जगत् की व्यवस्था चेतन आत्मा पुरुष में एक साथ होती है।६५
इस प्रकार सबके पुरुषात्मक हो जाने के कारण पुरुष में सहज ही सर्वज्ञता सिद्ध होती है।६६
पुरुष की चार अवस्थाएँ- पुरुष की चार अवस्थाएँ है- १. जाग्रत २. सुप्त ३. सुषुप्त ४. तूर्य। इन अवस्थाओं में तूर्य अवस्था विशुद्ध है। इन चारों अवस्थाओं को सुख, दु:ख, मोह और विशुद्धि की अवस्था भी कहा गया है। इन्हें सत्त्व, रज, तम और विमुक्ति नाम भी दिया गया है। ऊर्ध्वलोक, तिर्यक् लोक, अधोलोक और अविभाग अथवा संज्ञी, असंज्ञी, चेतन और भाव भी कहा गया है। इनमें सर्वज्ञता तूर्य अवस्था में पाई जाती है। उसी को परमात्मा भी कहते हैं।६८
महामोह और निद्रा के क्षय से उपशम शक्ति से निवृत्ति और उपकरण इन्द्रिय के द्वारा प्रत्यक्षादि से जब ज्ञान होता है तब वह चैतन्य की जाग्रत अवस्था है।६९ सुप्तावस्था भी ज्ञानस्वरूप ही होती है। क्योंकि उसमें संशय, विपर्यय आदि भी ज्ञान स्वरूप ही हैं। जिस प्रकार सोया हुआ व्यक्ति उच्छ्वास एवं नि:श्वास आदि क्रियाओं में अव्यक्त रूप में चेतना युक्त होकर जानता है। इसी प्रकार सुप्तावस्था वाला पुरुष भी ज्ञानवान होता है।
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