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पुरुषवाद और पुरुषकार ४७३ प्रकट होता है, इसलिए वह भाव है- 'भवतीति भावः' आगे प्रश्नोत्तर शैली में कहा गया है- .
'को भवति' -कौन होता है? 'य: कर्ता' -जो कर्ता होता है। 'कः कर्ता' -कर्ता कौन होता है? 'य: स्वतन्त्रः' - जो स्वतन्त्र होता है। 'कः स्वतन्त्रः' - स्वतन्त्र कौन होता है? 'यो ज्ञः' - जो ज्ञाता होता है।
उपर्युक्त प्रश्नोत्तरों का सार यही है कि पुरुष ही कर्ता है। क्योंकि वह स्वतंत्र है और वह स्वतंत्र इसलिए है क्योंकि वह ज्ञाता है।
शंका- दूध ज्ञाता नहीं है फिर भी दही का कर्ता होता है। इक्षुरस ज्ञाता नहीं है, फिर भी गुड़ का कर्ता है। इसलिए ज्ञाता ही कर्ता होता हो, यह आवश्यक नहीं है।
समाधान- “न, तत्प्रवृत्तिशेषत्वाद् गोप्रवृत्तिशेषक्षीरदधित्ववत्, ज्ञशेषत्वाद्वा चक्रभ्रान्तिवत्' अर्थात् उपर्युक्त शंका उचित नहीं है, क्योंकि उस प्रवर्तमान ज्ञाता की प्रवृत्ति परिसमाप्त नहीं होने के कारण आगे भी शेष रहती है। जिस प्रकार गाय की प्रवृत्ति के परिसमाप्त नहीं होने के कारण दूध, दही, नवनीत, घृत आदि उसी की प्रवृत्ति के शेष कार्य हैं। उसी प्रकार पुरुष की प्रवृत्ति का शेष यह जगत् है। इसके लिए चक्रभ्रमण का दृष्टान्त दिया गया है। जिस प्रकार कुम्भकार के प्रयत्न से भ्रमणशील चक्र में कुम्भकार की प्रवृत्ति का शेष पाया जाता है, उसी प्रकार पुरुष की प्रवृत्ति का शेष यह जगत् है।
रूपादि के सदृश अमूर्त पुरुष से मूर्त की उत्पत्ति- जिस प्रकार रूप, रस, गंध, स्पर्श एवं शब्द अमूर्त होने के कारण सूक्ष्मवृत्ति को नहीं त्यागते हुए भी अपनी प्रवृत्ति के प्रभाव से अवबद्ध मूर्तत्व के प्रक्रम वाले परमाणुओं का आश्रय लेकर नाना भेदों से युक्त पृथ्वी आदि स्थूल रूपादि को उत्पन्न करते हैं। इसी प्रकार पुरुष से भी रूपादि भाव प्राप्त होते हैं। वह पुरुष स्वरूप आत्मा ही अमूर्त, सूक्ष्म रूपादि स्वरूप से तथा स्थूल मूर्त परमाणु द्विप्रदेश आदि स्कन्ध, पृथ्वी आदि स्वरूप से विभक्त होता है। .
ज्ञानस्वरूप आत्मा ही ग्राह्य और ग्राहक- ज्ञान स्वरूप आत्मा है। वही रूपादि स्वरूप से निरूपित किया जाता है। इसमें वह पुरुष परम कारण है। 'रूप' शब्द
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