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________________ पुरुषवाद और पुरुषकार ४७१ जगदुत्पत्ति स्वीकार करने के कारण पुरुषवादी के रूप में जाने जाते थे। देव, ब्रह्म, ईश्वर और स्वयंभू (विष्णु) द्वारा सृष्टि का निर्माण मानने वाले देववादी, ब्रह्मवादी, ईश्वरवादी कहलाते थे। उनके मन्तव्य इस प्रकार हैं ४८ देवकृत लोक- 'देवउत्ते अयं लोए *" अर्थात् देव के द्वारा यह लोक बीज की तरह बोया गया। जैसे किसान बीज बोकर धान्य उत्पन्न करता है इसी तरह किसी देवता ने इस लोक को उत्पन्न किया है। वह इस लोक की रक्षा करता है। देववादी मानते हैं कि यह लोक किसी देवता का पुत्र है इत्यादि । ४९ ब्रह्मरचित लोक- 'बंभउत्तेति आवरे " यह लोक ब्रह्म के द्वारा बनाया गया है । ब्रह्मवाद के संबंध में दो विचारधाराएँ प्रचलित है। प्रथम विचारधारा के अनुसार "ब्रह्म जगत् के पितामह हैं। वे जगत् के आदि में एक ही थे। उन्होंने प्रजापतियों को बनाया और प्रजापतियों ने क्रमशः इस सम्पूर्ण जगत् को उत्पन्न किया । " ५१ द्वितीय विचारधारा में यह चराचर जगत् अण्डे से उत्पन्न हुआ है। वे कहते हैं कि जिस समय इस जगत् में कुछ भी नहीं था, किन्तु यह संसार पदार्थ से शून्य था, उस समय ब्रह्मा ने जल में एक अण्डा उत्पन्न किया। वह अण्डा क्रमशः बढ़ता हुआ जब दो खण्डों में फट गया तब उससे ऊपर और नीचे के दो विभाग उत्पन्न हुए। उन दोनों विभागों में सब प्रजाएँ हुई। इसी तरह पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, समुद्र, नदी और पर्वत आदि की उत्पत्ति हुई । ब्रह्मवादी कहते हैं कि सृष्टि के पहले यह जगत् अन्धकार रूप, अज्ञात और लक्षण रहित था। उस समय यह जगत् तर्क का अविषय तथा अज्ञेय और चारों तरफ से सोया हुआ सा था। ऐसी अवस्था में ब्रह्मा ने अण्डा आदि के क्रम से इस समस्त जगत् को बनाया । " ५२ ईश्वरकृत लोक- "ईसरेण कडे लोए जीवाजीवसमाउत्ते सुहदुक्खसमन्निए १३ जीव और अजीव से युक्त सुख और दुःख सहित यह लोक ईश्वरकृत है, ऐसा ईश्वरवादी मानते हैं। गोम्मटसार में ईश्वरवादियों के मन्तव्य को स्पष्ट करते हुए कहते हैं- "अण्णाणी हु अणीसो अप्पा तस्स य सुहं च दुक्खं च सग्गं णिरयं गमणं सव्वं ईसरकयं होदि ४ आत्मा अज्ञानी है, असमर्थ है कुछ करने में समर्थ नहीं । उसका सुख, दुःख, स्वर्ग या नरक में जाना सब ईश्वर के अधीन है। अतः समस्त जगत् का कर्ता साधारण पुरुष न होकर ईश्वर ही हो सकता है। है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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