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४७० जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण मनुस्मृति में सृष्टि-रचना
___ मनु के समक्ष मुनियों द्वारा की गई जिज्ञासा के प्रत्युत्तर में सृष्टि-निर्माण तथा उसके पूर्व की स्थिति का वर्णन 'मनुस्मृति' में उपलब्ध होता है। सृष्टि के पूर्व की स्थिति का वर्णन निम्नश्लोक में दृष्टिगोचर होता है
आसीदिदं तमोभूतमप्रज्ञातमलक्षणम्।
अप्रतळमविज्ञेयं प्रसुप्तमिव सर्वतः।।३ अर्थात् यह संसार पहले अन्धकार रूप, किसी प्रकार के ज्ञान से रहित, ज्ञान कराने वाले चिह्नों से हीन, तर्क के परे, अविज्ञेय तथा सभी ओर से सोते हुए के समान था।
इस प्रलयकाल के समाप्त होने के पश्चात् भगवान स्वयंभू परमात्मा ने अव्यक्त रहकर पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश इन पाँच महाभूत और इनके कारण रूप शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध तथा महत् तत्त्व को प्रकट कर सृष्टि को उत्पन्न करने वाली शक्ति को बढाया। तदनन्तर महाप्रलय की अवस्था के नाशक रूप से वे स्वयं प्रकट हुए।" वह परमात्मा इन्द्रियों से अगोचर, सूक्ष्म, अव्यक्त, सनातन, सभी प्राणियों में व्याप्त तथा अचिन्त्य था। ऐसे सर्वव्यापक परमात्मा ने ध्यान करके अपने शरीर से विभिन्न प्रकार की प्रजाओं की सृष्टि की इच्छा से प्रारम्भ में जल को उत्पन्न किया और उसमें बीज डाला। वह बीज सूर्य के समान प्रकाश वाला स्वर्ण का अण्डा जैसा हो गया। तत्पश्चात् उसमें सभी लोकों के पितामह (जनक) ब्रह्माजी स्वयं उत्पन्न हुए तथा उन्होंने उस अण्डे में एक वर्ष तक निवास करके उसके दो भाग किए। फिर भगवान ने दो टुकड़ों में ऊपर के टुकड़े से स्वर्ग और नीचे के टुकड़े से भूमि को रचा। आत्मा से सद्-असद् भाव वाले मन को तथा मन से अहंकार को निर्मित किया। इसके बाद अपने से ही महत्-तत्त्व, तीनों गुण (सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण) और विषयों को ग्रहण करने वाली पाँचों इन्द्रियों को बनाया। तदनन्तर परमात्मा ने शक्तिशाली छः तत्त्वों (अहंकार तथा पंच तन्मात्रा) के सूक्ष्म अवयवों को अपने विकार के साथ (इन्द्रियों और पंच महाभूतों के साथ) इकट्ठा कर देव, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि प्राणियों को रचा। इस प्रकार ब्रह्म से सृष्टि की रचना हुई। जैनग्रन्थों में पुरुषवाद का निरूपण एवं निरसन सूत्रकृतांगसूत्र में सृष्टिरचना विषयक विभिन्न मत
___ आगमकाल में प्रचलित लोकरचना के संबंध में अनेक मत जैनागम सूत्रकृतांग में प्राप्त होते हैं। उस समय कुछ मतावलम्बी किसी विशिष्ट पुरुष से
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