________________
४४२ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण
१४५. महापुराण, ४३७, उद्धृत कर्मसिद्धान्त (श्री कन्हैयालाल लोढ़ा) पृ. ६ १४६. दैव शब्द की चर्चा पृ० २४७-२४९ आदि पर भी की गई है। १४७. न्याय भाष्य १.१.२ आदि (प्रमुख जैनागमों में भारतीय दर्शन के तत्त्व-पृ. १९७
के फुटनोट से) १४८. न्यायदर्शन ४.१.१९ १४९. न्यायदर्शन ४.१.२१ १५०. जैन, बौद्ध तथा गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, पृ. ४४१ १५१. वही, पृ. ४४१ १५२. वेदान्त दर्शन-अध्याय ३, पाद २, सूत्र ३८-४१ १५३. वेदान्त दर्शन, संस्कृति संस्थान, ख्वाजा कुतुब, बरेली (उ.प्र.), ३.२.३८-४ की
हिन्दी व्याख्या। १५४. 'ज्ञानेन चाऽपवर्गो, विपर्ययादिष्यते बन्धः' -सांख्यकारिका, कारिका ४४ १५५. एष प्रत्ययसर्गो विपर्ययाशक्तितुष्टिसिद्धयाख्यः' -सांख्यकारिका, कारिका ४६ १५६. "वैश्वरूपस्य कारणमस्त्यव्यक्तं" -सांख्यकारिका १५, १६ १५७. चोदना पुनराम्भः -मीमांसा दर्शन २.१.५ १५८. मीमांसा दर्शन- अध्याय ३, पाद २, सू. २५ १५९. प्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशास्वद्विधयः' -तत्त्वार्थ सूत्र ८.४ १६०. जोगा पयडिपएसं ठिइअणुभागं कसायाउ' -कर्मग्रन्थ भाग-५, गाथा ९६ १६१. षड्दर्शन समुच्चय ४८ १६२. कर्मवाद : एक अध्ययन-सुरेश मुनि, पृ. ६९-७३ १६३. कर्मवाद : एक अध्ययन-सुरेश मुनि, पृ. ६९-७३ १६४. जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, पृष्ठ ४४३ १६५. वही, पृ. ४४३ १६६. शास्त्रवार्तासमुच्चय, स्तबक ३, श्लोक १४ १६७. दर्शन और चिन्तन- भाग द्वितीय, पृ. २१३-२१४ १६८. आचारांगसूत्र १.१.५ १६९. उत्तराध्ययन २०.३७
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org