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४३६ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण ४६. तदेव च यथा सूत्रं सुवर्णे वर्तते पुनः।
मुक्तास्वथ प्रवालेषु मृन्मये राजते तथा।। तद्वद् गोऽश्वमनुष्येषु तद्वद्धस्तिमृगादिषु। तद्वत् कीटपतंगेषु प्रसक्तात्मा स्वकर्मभिः।।
-महाभारत, शान्तिपर्व, अध्याय २०६, श्लोक २,३ ४७. येन येन शरीरेण यद्यत्कर्म करोत्ययम्। तेन तेन शरीरेण तत् तत् फलमुपाश्नुते।।
-महाभारत, शान्तिपर्व, अध्याय २०६, श्लोक ४ ४८. यध्ययं पुरुषः किंचित् कुरुते वै शुभाशुभम्। तद् धातृविहितं विद्धि पूर्वकर्मफलोदयम्।।
-महाभारत, वनपर्व, अध्याय ३२, श्लोक २२ कर्मजं त्विह मन्यन्ते फलयोगं शुभाशुभम्।
-महाभारत शान्तिपर्व, अध्याय २२२, श्लोक २४ ४९. महाभारत, अनुशासन पर्व, अध्याय १, श्लोक ७२
कर्मणः पुरुषः कर्ता शुभस्याप्यशुभस्य वा।।५७।। कुतो वा सुखदुःखेषु नृणां ब्रह्मविदां वर। इह वा कृतमन्वेति परदेहेऽथ वा पुनः।।५८।। देही च देहं संत्यज्य मृग्यमाणः शुभाशुभैः। कथं संयुज्यते प्रेत्य इह वा द्विजसत्तम।।५९।।
-महाभारत, वनपर्व, अधयय १८३, श्लोक ५७-५९ ५१. महाभारत, वनपर्व, अध्याय १८३, श्लोक ७४ ५२. अयमादिशरीरेण देवसृष्टेन मानवः।
शुभानामशुभानां च कुरुते संचयं महत्।।७६।। आयुषोऽन्ते प्रहायेदं क्षीणप्रायं कलेवरम्। सम्भवत्येव युगपद् योनौ नास्त्यन्तराभवः।।७।। तत्रास्य स्वकृतं कर्म छायेवानुगतं सदा। फलत्यय सुरवा) वा दुःखार्हो वाय जायते।।७८।।
-महाभारत, वनपर्व, अध्याय १८३, श्लोक ७६-७८
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