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७.
१.
निष्कर्ष यह है कि जैन दर्शन में कर्म सिद्धान्त एक प्रमुख सिद्धान्त के रूप में विवेचित होने पर भी जैन दार्शनिक उसकी एकान्त कारणता से असहमत हैं। वे पूर्वकृत कर्मों के साथ काल, स्वभाव, नियति और पुरुषार्थ को भी कथंचित् महत्त्व देते हैं।
संदर्भ
२.
३.
४.
५.
६.
७.
८.
पूर्वकृत कर्मवाद ४३३ सकता। यदि कर्म को अनेक स्वभाव वाला स्वीकार किया जाए तो पुरुषकार, स्वभावादि अनेक कारणों को मानने में और इस कर्म को मानने में नाममात्र का भेद रह जाएगा।
९.
१०.
आत्मा कर्म का आलम्बन है, उस आलम्बन के बिना कर्म अपना कार्य नहीं कर सकता। चेतन से अनिधिष्ठित कर्म वास्यादि की भाँति है जिसका कोई अधिष्ठायक होना चाहिए। अधिष्ठायक उसको स्वीकार करते ही एकान्त कर्मवाद खण्डित हो जाता है।
श्वेताश्वतरोपनिषद् ५.७
नारदीय महापुराण, उत्तरखण्ड, अध्याय २८, रामायण उत्तरकाण्ड, अध्याय १५, श्लोक २५
महाभारत, अनुशासन पर्व अध्याय १, श्लोक ७२
,
महाभारत, वनपर्व, अध्याय १८३, श्लोक ७६-७९
यथा छायातपौ नित्यं सुसंबद्धौ परस्परम्, एवं कर्म च कर्ता च संश्लिष्टावितरेतरम् । - पंचतन्त्र, मित्रसम्प्राप्ति, श्लोक १३२
नीतिशतक, श्लोक ९५
श्लोक ६५
उत्तराध्ययन २०.३७
विशेषावश्यक भाष्य गाथा १६१२ से १६३१ में
'भारतीय दर्शन' उमेश मिश्र, उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ, प्रथम संस्करण पृ. ३८
११. वेद (ऋग्वेद भाषा भाष्य सम्पूर्ण), प्रकाशक- दयानन्द संस्थान, नई दिल्ली-५, मण्डल ७, सूक्त ८७, मंत्र ६
१२. ऋग्वेद- मण्डल ७, सूक्त ५३, मंत्र २
१३. ऋग्वेद - मण्डल १, सूक्त १६४, मंत्र २२
१४.
मुण्डकोपनिषद् ३.१.३
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