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________________ ३४० जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण कर्म-मीमांसा का सामान्य स्वरूप आदिमहाकाव्य में प्रस्तुत हुआ है'यादृशं कुरुते कर्म तादृशं फलमश्नुते * जो जैसा कर्म करता है वह वैसा ही फल भोगता है। 'सर्वे कर्मवशा वयम् हम सब लोग कर्माधीन हैं; महाभारतकार का यह कथन कर्म के एकाधिकार को व्यक्त करता है। वन पर्व में कर्म के स्वरूप को समझाते हुए मुनि मार्कण्डेय कहते हैं कि मनुष्य ईश्वरकृत पूर्व शरीर के द्वारा शुभाशुभ कर्मों को संचित कर दूसरे जन्म में उसका यथासमय फल प्राप्त करता है। इन कर्मों के परिणामों को वह निवारण करने में समर्थ नहीं होता। भगवद्गीता में भी कर्म बंधन से लेकर कर्म-मुक्ति तक की प्रक्रिया का वर्णन है। संस्कृत साहित्य में 'दैव' और 'भाग्य' शब्द पूर्वकृत कर्म के पर्याय के रूप में प्रयुक्त हुए हैं। शुक्रनीति, स्वप्नवासवदत्त, पंचतन्त्र, हितोपदेश, नीतिशतक ग्रन्थ में कर्मवाद की चर्चा समुपलब्ध है। जिस प्रकार छाया और धूप आपस में सदा सम्बद्ध रहते हैं इसी तरह कर्म और कर्ता एक दूसरे से बंधे रहते हैं। ऐसा मन्तव्य पंचतन्त्र में दृष्टिगत होता है। कर्म की महत्ता का प्रतिपादन नीतिशतक में करते हुए कहा है कि कर्म का प्रभुत्व मनुष्य एवं देवताओं सभी पर चलता है। कर्म ही प्रधान एवं शक्तिशाली है। योगवासिष्ठ में पूर्वकृत कर्म का निरूपण और उसका निरसन भी अंकित है। भारतीय दर्शनों में कर्म की सर्वत्र मीमांसा की गई है। न्याय, वैशेषिक और वेदान्त दर्शन कर्मों में स्वतः फल देने की क्षमता का अभाव मानकर ईश्वर को फलप्रदाता स्वीकार करते हैं तथा सांख्य, बौद्ध और मीमांसा दर्शन किसी वैयक्तिक ईश्वर का अस्तित्व स्वीकार नहीं करते हैं। जैन दर्शन फल देने की शक्ति कर्म में ही मानता है। 'कर्म सिद्धान्त' को न्याय दर्शन 'अदृष्ट' और मीमांसा दर्शन 'अपूर्व के रूप में अपने ग्रन्थों में समेटे हुए है। वैशेषिक दर्शन में 'कर्म' एक पदार्थ है, न कि पुरुषकृत पूर्वकर्म का द्योतक है। सांख्यदर्शन में 'कर्म' शब्द तो प्राप्त नहीं होता, किन्तु कर्म के स्वरूप की अभिव्यक्ति अवश्य मिलती है। बौद्ध दर्शन में संस्कार के अभिप्राय में कर्म व्याख्यायित हुआ है। बंधन और कर्म-विपाक के स्वरूप में 'कर्म' वेदान्त और योगदर्शन में स्थापित हुआ है। कर्मसिद्धान्त रूपी केन्द्र के विस्तार में सम्पूर्ण जैन दर्शन सिमटा हुआ है। यहाँ प्रत्येक आत्मा का पृथक् अस्तित्व और पृथक् कर्म-संयोजन है। इसलिए सभी जीव अपने-अपने कर्मों के कर्ता एवं भोक्ता हैं, अत: कहा है- 'अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण या" इस दर्शन में अष्टविध कर्मों के बंधन एवं उनसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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