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पंचम अध्याय
पूर्वकृत कर्मवाद
उत्थापनिका
जीव के पूर्वकृत कर्म ही उसके वर्तमान फल के प्रति कारण होते हैं। जीव के समस्त कार्यों के प्रति पूर्वकृत कर्म ही कारण है, अन्य नहीं- यह मान्यता पूर्वकृत कर्मवाद है। ऐकान्तिक रूप से कर्म को कारण कहने वाले कर्मवादी मानते हैं कि जीव कर्म-फल को परिवर्तित करने में समर्थ नहीं होते हैं तथा जैसे कर्म करते हैं वैसा ही फल भोगते हैं।
कालवाद, स्वभाववाद एवं नियतिवाद के समान कर्मवाद भी भारतीय चिन्तन में रचा-पचा रहा, किन्तु एकान्त पूर्वकृत कर्म को ही कारण मानने वाले वाद के स्वतंत्र सम्प्रदाय एवं ग्रन्थों का कहीं भी कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता है। अतः कर्मवाद की चर्चा उपलब्ध भारतीय वाङ्मय के प्रमुख ग्रन्थों एवं विशेषतः जैन ग्रन्थों के आधार पर प्रस्तुत की जा रही है। कर्म के स्वरूप एवं उसके फल की चर्चा अनेक ग्रन्थों में प्राप्त होती है। ईश्वर को न मानने वाले तो कर्म की महत्ता अंगीकार करते ही हैं किन्तु उसे मानने वाले भी कर्म का महत्त्व स्वीकार करते हैं। कर्म को ही एकमात्र कारण मानने वाले 'एकान्त पूर्वकृत कर्मवाद' की चर्चा जैन ग्रन्थों में अवश्य प्राप्त होती है, किन्तु अनेकान्तवादी जैनाचार्यों ने उसकी एकान्त कारणता का निरसन कर अन्य कारणों को भी महत्त्व दिया है। यहाँ पर वैदिक एवं अवैदिक वाङ्मय में प्राप्त कर्म-सिद्धान्त का स्थूल आलोडन करने का प्रयास किया गया है।
प्राचीन वैदिक साहित्य में दैव, यज्ञ-धर्म एवं ऋत आदि की कल्पना से ही कर्म-सिद्धान्त का प्रादुर्भाव हुआ। श्वेताश्वतरोपनिषद्, छान्दोग्योपनिषद्, कठोपनिषद्, बृहदारण्यकोपनिषद, ब्रह्मबिन्दूपनिषद् आदि उपनिषदों में कर्म के सूक्ष्म, गहन एवं सारगर्भित विवेचन के साथ कर्मबंधन, मोक्ष, पुनर्जन्म आदि कर्मविषयक अनेक तत्त्वों की चर्चा है। उपनिषद् का यह वाक्य 'य: फलकर्मकर्ता कृतस्य तस्यैव स चोपभोक्ता अर्थात् जो कर्मों का कर्ता है वही भोक्ता है- कर्मवाद को निरूपित करता है। पुराणों में पूर्वकृत कर्मवाद के लिए 'दैव' शब्द का प्रयोग प्राप्त होता है। 'दैव' शब्द के औचित्य को नारदीय महापुराण में सिद्ध करते हुए कहा है- 'दैवं तत्पूर्वजन्मनि संचिताः कर्मवासनाः'।२
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