________________
३१६ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण ६. (क) हरिवंश पुराण ६१.७७
(ख) हरिवंश पुराण ६२.४४ नारदीय महापुराण, पूर्व खण्ड, अध्याय ३७, श्लोक ४८ कुले जन्म तथा वीर्यमारोग्यं रूपमेव च। सौभाग्यमुपभोगश्च भवितव्येन लभ्यते।। -महाभारत, शान्ति पर्व, २८.२३ अप्रियैः सह संयोगो विप्रयोगश्च सुप्रियैः। अर्थानौँ सुखं दुःखं विधानमनुवर्तते।। -महाभारत, शान्ति पर्व, २८.१८ प्रादुर्भावश्च भूतानां देहत्यागस्तथैव च। प्राप्तिायामयोगश्च सर्वमेतत् प्रतिष्ठितम्।।-महाभारत, शान्ति पर्व, २८.१९
राजतरंगिणी, अष्टमतरंग, श्लोक २२८० १०. (क) अभिज्ञान शाकुन्तलम्, प्रथम अंक, श्लोक १४
(ख) अभिज्ञान शाकुन्तलम्, षष्ठ अंक, श्लोक ९ से पूर्व में ११. (क) यद् भावि न तद्भावि भावि चेन्न तदन्यथा- हितोपदेश, सन्धि, श्लोक १० (ख) न हि भवति यन्न भाव्यं भवति च भाव्यं विनापि यत्नेन।
-पंचतन्त्र २.१०/२.१२९ १२. सुत्तपिटक के दीघनिकाय के प्रथम भाग में, सामञफलसुत्तं, मक्खलिगोसालवाद १३. प्रश्नव्याकरण, प्रथम श्रुतस्कन्ध, द्वितीय अध्ययन सूत्र ४ १४. श्वेताश्वतरोपनिषद् १.२ १५. सूत्रकृतांग २.१.६६४ १६. उपासकदशांग सूत्र, अध्ययन ७, सूत्र १८२-२०० १७. नन्दीसूत्र, मलयगिरि अवचूरि, पृ. १७९ १८. षड्दर्शन समुच्चय पृ. १८,१९ १९. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग द्वितीय, पृ. ६१३ २०. स्वयंभूस्तोत्र, श्री सुपार्श्व जिन स्तवन, श्लोक ३ २१. व्याख्याप्रज्ञप्ति, शतक, १५, सूत्र २८ २२. 'गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स एयमटुं पडिसुणेमि
-व्याख्याप्रज्ञप्ति, शतक १५, सूत्र ४४
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org