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नियतिवाद ३१५ इस अध्याय में नियतिवाद से जुड़े जैन दर्शन के कतिपय बिन्दुओं पर विशेष चर्चा की गई है, जिनमें काललब्धि और नियति, सर्वज्ञता और नियतिवाद, क्रमबद्धपर्याय और नियतिवाद तथा पूर्वकृत कर्म और नियतिवाद का समावेश है।
जैन दर्शन में भी कथंचित् नियति का प्रवेश है। इसकी पुष्टि काललब्धि, सर्वज्ञता और क्रमबद्धपर्याय के सिद्धान्तों से होती है। अध्याय में कथंचित् नियति को जैनदर्शन में स्वीकार करते हुए भी काललब्धि, सर्वज्ञता और क्रमबद्धपर्याय को एकान्त नियतिवाद से पृथक् सिद्ध किया गया है क्योंकि जैन दर्शन में नियति को कारण मानते हुए भी उसमें काल, स्वभावादि अन्य कारणों को भी स्थान दिया गया है।
आचार्य महाप्रज्ञ ने अपने वाङ्मय में नियति की व्याख्या सार्वभौम नियम के रूप में की है। जिसे स्वीकार करने में कोई बाधा नहीं है, किन्तु यह प्राचीन परम्परा में प्रतिपादित नियति के स्वरूप से भिन्न है। संदर्भ
वाल्मीकि रामायण, किष्किन्धा काण्ड, सर्ग २५, श्लोक ४ (क) सूत्रकृतांग १.१.२.३ की शीलांक टीका में (ख) प्रश्नव्याकरण सूत्र १.२.७ की अभयदेव वृत्ति (ग) शास्त्रवार्तासमुच्चय-स्तबक २, श्लोक ६२ की यशोविजय टीका में (घ) सन्मति तर्क ३.५३ की टीका में (ड) उपदेश पद महाग्रन्थ पृ. १४० (च) लोक तत्त्व निर्णय, पृ. २५ पर श्लोक २७ महाभारत, शांतिपर्व, अध्याय २२६, श्लोक १० यस्माच्च येन च यथा च यदा च यच्च यावच्च यत्र च शुभाऽशुभमात्मकर्म। तस्माच्च तेन च तथा च तदा च तच्च, तावच्च तत्र च विधातृवशादुपैति।।- हितोपदेश, मित्रलाभ, श्लोक ४० (क) श्वेताश्वतरोपनिषद् १.२ (ख) ईशाद्यष्टोत्तरशतोपनिषदः के महोपनिषद् में पृष्ठ ३७५ (ग) ईशाद्यष्टोत्तरशतोपनिषदः के भावोपनिषद् में पृष्ठ ४७६
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