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३१२ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण
जैनागम एवं जैन दार्शनिक कृतियों में नियतिवाद का निरूपण एवं निरसन प्राप्त होता है। जैन दार्शनिक पहले अपनी कृतियों में जैन दर्शन का उपस्थापन करते हैं तथा फिर उसका खण्डन करते हैं। सूत्रकृतांग में नियतिवाद का सांकेतिक निरूपण हुआ है। टीकाकार शीलांकाचार्य ने सूत्रकृतांग की गाथा में आए 'संगइअं' पद का अर्थ नियतिकृत स्वीकार किया है- नियतिकृत सांगतिकमित्युच्यते।२७३ जिस जीव को जिस समय जहाँ जिस प्रकार के सुख-दुःख को अनुभव करना होता है, वह संगति कहलाती है। यह संगति ही नियति है। प्राणियों के सुख-दुःख आदि उनके उद्योग द्वारा किए हुए नहीं किन्तु उनकी नियति द्वारा किए हुए होते हैं इसलिए वे सांगतिक कहलाते हैं। नियतिवाद का निरसन करते हुए सूत्रकृतांग में नियतिवादी को बुद्धिहीन बताया है। आगम का मन्तव्य है कि पूर्वकृत कर्म एवं पुरुषार्थ भी व्यक्ति के सुख-दु:ख में हेतु होते हैं। टीकाकार शीलांकाचार्य के मतानुसार सुख-दुःख आदि कथंचित् नियति से होते हैं अर्थात् उनमें पूर्वकृत कर्म कारण होता है। कथंचित् वे अनियतिकृत भी होते हैं क्योंकि उनमें काल, स्वभाव, पुरुषकार आदि की अपेक्षा होती है। यदि नियतिवाद को स्वीकार किया जाए तो परलोक के लिए की गई क्रियाएँ व्यर्थ हो जायेंगी। पुरुषार्थ को व्यर्थ नहीं माना जा सकता। नियति स्वत: नियत है या किसी अन्य से नियन्त्रित है। इस प्रकार का प्रश्न उठाकर भी नियतिवाद को अप्रामाणिक ठहराया गया है।
उपासकदशांग सूत्र में आजीवक मत के उपासक सकडाल पुत्र को भगवान महावीर ने नियतिवाद को अव्यवहारिक एवं असत्य बताया है तथा उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषार्थ, पराक्रम आदि के महत्त्व का स्थापन किया है। सर्व भावों को नियत मानने का उन्होंने निरसन किया है। प्रश्नव्याकरण सूत्र के टीकाकार अभयदेवसूरि ने पुरुषकार का अपलाप करने वाले नियतिवाद को मृषा एवं प्रमाणातीत निरूपित किया है। प्रश्नव्याकरण सूत्र के ही अन्य टीकाकार ज्ञानविमलसूरि ने कहा है कि नियति अचेतन है और अचेतन कर्ता कहीं उपलब्ध नहीं होता है, वह किसी के आश्रित ही हो सकती है, अनाश्रित नहीं।
द्वादशारनयचक्र पाँचवीं शती की महत्त्वपूर्ण रचना है जिसमें मल्लवादी क्षमाश्रमण ने एवं उनके टीकाकार सिंहसूरि ने नियतिवाद को उपस्थापित करते हुए उसकी विभिन्न विशेषताओं को इंगित किया है। यथा१. नियतिवाद में पुरुष के कर्तृत्व को स्वीकार नहीं किया जाता। उनके
अनुसार पुरुष न स्वतन्त्र है और न ज्ञाता। २. नियति ही एक मात्र कारण है जिसको स्वीकार करने पर पदार्थों के सदृश
या विसदृश कार्यों के घटित होने में कोई व्याघात नहीं आता है।
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