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नियतिवाद ३११
१. नियतिजन्यता प्रत्येक वस्तु का साधारण धर्म है। सभी पदार्थ नियति से उत्पन्न होते हैं
नियतेनैव रूपेण सर्वे भावा भवन्ति यत् ।
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ततो नियतिजा ह्येते तत्स्वरूपानुवेधतः ।।
२. नियति प्रमाण से सिद्ध है क्योंकि जगत् में नियति के स्वरूप के अनुसार ही घटादि कार्यों की उत्पत्ति देखी जाती है। नियति रूप विशिष्ट कार्य की उत्पत्ति ही नियति की सत्ता में प्रमाण है।
३. नियति के बिना मूंगों का पकना भी संभव नहीं है । हरिभद्रसूरि कहते हैंन चर्ते नियतिं लोके मुद्रपक्तिरपीक्ष्यते । तत्स्वभावादिभावेऽपि नासावनियता यतः ।।
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४. कार्य को यदि नियतिजन्य नहीं मानेंगे तो कार्य में नियत रूपता का कोई नियामक नहीं बनेगा। नियामकता के अभाव में उत्पन्न होने वाले कार्यों में सर्वात्मकता की आपत्ति आ जाएगी।
न्यायाचार्य यशोविजय ने नयोपदेश में नियतिवाद का उल्लेख मिथ्यात्व के ६ स्थानों के अन्तर्गत किया है। नियतिवादी का मन्तव्य है कि मुक्ति तो होती है किन्तु उसका कोई उपाय नहीं है। वह अकस्मात् ही होती है। आधुनिक युग में तिलोकऋषि जी महाराज ने नियतिवाद को सवैया छन्द में निबद्ध किया है।
नियति के संबंध में स्वयंभूस्तोत्र, अष्टशती, गोम्मटसार, स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा आदि ग्रन्थों में भी विवेचन हुआ है। इन ग्रन्थों में नियति की कथंचित् स्वीकृति जैन दर्शन में स्वीकृत होती हुई प्रतीत होती है। समन्तभद्र ने भवितव्यता को दुर्निवार कहा है । अष्टशती में भट्ट अकलंक ने भवितव्यता के स्वरूप को प्रस्तुत करते हुए एक श्लोक उद्धृत किया है
तादृशी जायते बुद्धिर्व्यवसायश्च तादृशः । सहायास्तादृशाः सन्ति यादृशी भवितव्यता।।
गोम्मटसार और स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा में नियति का स्वरूप प्रकट हुआ है। जिसके अनुसार पदार्थ की प्रत्येक पर्याय का द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव नियत है। गोम्मटसार में कहा गया है कि जो जब जिसके द्वारा जैसे जिसका नियम से होने वाला है वह उसी काल में उसी के द्वारा उसी रूप से नियम से उसका होता है - ऐसा नियति का स्वरूप मानना नियतिवाद है । २७२
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