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________________ ३०६ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण "नियति में कोई तर्क नहीं होता, वहाँ तर्क की पहुँच नहीं है। वह तर्क के द्वारा जानी नहीं जा सकती। वह तर्कातीत अवस्था है। मनुष्य के द्वारा निर्मित नियमों में तर्क का प्रवेश हो सकता है। यह नियम क्यों बना-ऐसा पूछा जा सकता है। मनुष्य नियम बनाता है तो उसके पीछे कुछ न कुछ प्रयोजन होता है। निष्प्रयोजन नियम नहीं बनाए जाते। न्यायशास्त्र कहता है- 'यत् यत् कृतकं तत् तत् अनित्यं जो कृतक अर्थात् किया हुआ होता है, वह अनित्य होता है, शाश्वत नहीं होता। शाश्वत होता है अकृत, जो किया हुआ नहीं होता है। बस, यही उसकी मर्यादा है। मनुष्य का बनाया हुआ नियम शाश्वत नहीं होता, नियति नहीं होता। नियति शाश्वत है। उसके नियम स्वाभाविक और सार्वभौम होते हैं। वे अकृत हैं। बनाए हुए नहीं है, इसीलिए शाश्वत हैं। नियतिवाद की प्राचीन व्याख्या से हटकर मैंने यह नई व्याख्या प्रस्तुत की है। मैं जानता हूँ कि यह नियतिवाद की वैज्ञानिक व्याख्या है। जैनदर्शन ने इसी व्याख्या को स्वीकारा है।२५० निष्कर्ष नियतिवाद के अनुसार नियति ही सब कार्यों का कारण है। नियतिवाद का निरूपण मंखलि गोशालक ने किया था। उनकी मान्यता का उल्लेख व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र और बौद्ध त्रिपिटक के दीघनिकाय में स्पष्टतः हुआ है। सूत्रकृतांग और उपासकदशांग सूत्र में भी नियतिवाद की चर्चा है। व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र के १५वें शतक में नियतिवाद के प्ररूपक गोशालक का विस्तार से परिचय सम्प्राप्त होता है। गोशालक की सम्प्रदाय आजीवक सम्प्रदाय के नाम से प्रसिद्ध है, किन्तु वर्तमान में यह अस्तित्व में नहीं है। नियतिवाद का मन्तव्य है कि जो जब जैसा और जिससे होना होता है वह तब वैसा और उससे ही होता है। नियति के स्वरूप को प्रतिपादित करने वाला एक श्लोक सूत्रकृतांग और प्रश्नव्याकरण की टीका, सन्मति तर्क, शास्त्रवार्ता समुच्चय और लोक तत्त्व निर्णय आदि दार्शनिक ग्रन्थों में उद्धृत है, जो इस प्रकार हैप्राप्तव्यो नियतिनलाश्रयेण योऽर्थः, सोऽवश्यं भवति नृणां शुभोऽशुभो वा। भूतानां महति कृतेऽपि हि प्रयत्ने, नाभाव्यं भवति न भाविनोऽस्ति नाशः।।२५१ अर्थात् जो पदार्थ नियति के बल के आश्रय से प्राप्तव्य होता है, वह शुभ या अशुभ पदार्थ मनुष्यों को अवश्य प्राप्त होता है। प्राणियों के द्वारा महान् प्रयत्न करने पर भी अभाव्य कभी नहीं होता और भावी का कभी नाश नहीं होता है। नियतिवाद का कोई स्वतंत्र ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है किन्तु इस सिद्धान्त का प्रभाव भारतीय वाङ्मय के विभिन्न ग्रन्थों में दृग्गोचर होता है। आगम, त्रिपिटक, उपनिषद्, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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