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नियतिवाद २९९ केवलज्ञानी अथवा सर्वज्ञ के लिए तीनों कालों के समस्त द्रव्यों और उनकी पर्यायों में से कुछ भी अज्ञात नहीं होता। इस प्रकार केवलज्ञानी ही सर्वज्ञ होता है।
___ सर्वज्ञतावाद में यह माना जाता है कि सर्वज्ञ देश और काल की सीमाओं से ऊपर उठकर कालातीत दृष्टि से सम्पन्न होता है और इस कारण उसे भूत के साथसाथ भविष्य का भी पूर्वज्ञान होता है। लेकिन जो ज्ञात है उसमें संभावना, संयोग या अनियतता नहीं हो सकती। नियत घटनाओं का पूर्वज्ञान हो सकता है, अनियत घटनाओं का नहीं। यदि सर्वज्ञ को भविष्य का पूर्वज्ञान होता है और वह यथार्थ भविष्यवाणी कर सकता है, तो इसका अर्थ है कि भविष्य की समस्त घटनाएँ नियत हैं।२२८ भविष्य दर्शन और पूर्वज्ञान में पूर्वनिर्धारण गर्भित है। जैन दर्शन सर्वज्ञता को स्वीकार करता है। जैनागमों में अनेक ऐसे स्थल हैं जिनमें तीर्थकरों एवं केवलज्ञानियों को त्रिकालज्ञ सर्वज्ञ कहा गया है। व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र, अंतकृद्दशांग सूत्र एवं अन्य जैनागमों में इस त्रिकालज्ञ सर्वज्ञतावादी धारणा के अनुसार गोशालक, श्रेणिक, कृष्ण आदि के भावी जीवन के संबंध में भविष्यवाणी भी की गई है। यह भी माना गया है कि सर्वज्ञ जिस रूप में घटनाओं का घटित होना जानता है, वे उसी रूप में घटित होती हैं। उत्तरकालीन जैन ग्रन्थों में इस त्रैकालिक ज्ञान संबंधी सर्वज्ञत्व की धारणा का मात्र विकास ही नहीं हुआ, वरन् उसको तार्किक आधार पर सिद्ध करने का प्रयास भी किया गया है।
सर्वज्ञ समस्त द्रव्यों और उनकी समस्त पर्यायों को जानता है इसलिए उनके ज्ञान में जानी गई अवस्थाएँ, घटनाएँ या कार्य नियत होते हैं। यही नहीं उनके ज्ञान में विभिन्न जीवों के भावों या परिणामों के आधार पर भावी गतियों या जीवन की भावी घटनाओं को भी जान लिया जाता है। इस तरह से सर्वज्ञता की स्वीकृति में नियतिवाद का प्रवेश होने लगता है। भगवान महावीर ने उपासकदशांग सूत्र में गोशालक के नियतिवाद का खण्डन किया है तथा उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पराक्रम, पुरुषार्थ आदि की उपयोगिता प्रतिपादित की है। यहाँ पर यह प्रश्न उपस्थित होता है कि सर्वज्ञवाद को स्वीकार करने पर नियतिवाद का निषेध नहीं किया जा सकता, जबकि भगवान महावीर ने नियतिवाद का निषेध किया है।
सर्वज्ञता का जो अर्थ प्रचलित है उसमें नियतिवाद का प्रवेश हुए बिना नहीं रहता। अतः सर्वज्ञ का या केवलज्ञान का स्वरूप ऐसा होना चाहिए, जिसमें सर्वज्ञता भी सुरक्षित रहे और एकान्त नियतिवाद का प्रवेश भी न हो।
इसके संबंध में डॉ. सागरमल जैन के विचार महत्त्वपूर्ण हैं- “यद्यपि उपासकदशांग के आधार पर सम्पूर्ण घटनाक्रम को अनियत मानकर पुरुषार्थवाद की
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