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________________ २९८ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण २३३ ३. ' स एव चेतयितात्मा निश्चयनयेन स्वयमेव कालादिलब्धिवशात्सर्वज्ञो जातः सर्वदर्शी च जात: अर्थात् वह चेतयिता आत्मा निश्चयनय से स्वयं ही कालादि लब्धि के वश से सर्वज्ञ व सर्वदर्शी हुआ है। भदंत गुणभद्रसूरि ने भी आत्मानुशासन में सम्यग्दर्शन, व्रतदक्षता, कषायविनाश और योगनिरोध द्वारा मुक्ति इन सभी में काललब्धि की कारणता स्वीकार की है। २३४ सभी पर्यायों में काललब्धि द्रव्य अविनश्वर होने के कारण अनादिनिधन है। उस अनादि-निधन द्रव्य में द्रव्य-क्षेत्र - काल-भाव के मिलने पर अविद्यमान पर्याय की उत्पत्ति हो जाती है। जैसेमिट्टी में घट के उत्पन्न होने का उचित काल आने पर कुम्हार आदि के सद्भाव में घट आदि पर्याय उत्पन्न होती है। इस प्रकार अनादि-निधन द्रव्य में काललब्धि से अविद्यमान पर्यायों की उत्पत्ति होती है, यह स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा में स्पष्टतः कहा गया है सव्वाण पज्जयाणं अविज्जमाणाण होदि उप्पत्ती । , २३५ कालाई - लद्धीए अणाइ- णिहणम्मि दव्वम्मि।। इस प्रकार कालादिलब्धि से युक्त एवं नाना शक्तियों से संयुक्त पदार्थ के पर्याय- परिणमन को कोई पदार्थ रोकने में समर्थ नहीं है । २३६ 1 काललब्धि की अवधारणा कालवाद से पृथक् है । कालवाद में जहाँ काल को ही कार्य की उत्पत्ति में एकमात्र कारण माना गया है, वहाँ काललब्धि में काल की कारणता के साथ पुरुषार्थ आदि की कारणता भी स्वीकार की गई है। कालवादी यह नहीं कह सकता कि किसी के पुरुषार्थ करने से फल की प्राप्ति होती है, जबकि काललब्धि जैन पारिभाषिक शब्द है जो नियति या काल की कथंचित् कारणता को मान्य करता हुआ पुरुषार्थ आदि के लिए ही मार्ग प्रशस्त करता है । सर्वज्ञता और नियतिवाद सर्वज्ञता की अवधारणा श्रमण और वैदिक दोनों परम्पराओं की प्राचीन धारणा है। जैन दर्शन में 'सर्वज्ञ' शब्द का प्रयोग केवलज्ञानी के लिए किया जाता है। केवलज्ञानी समस्त द्रव्यों और उनकी पर्यायों को साक्षात् जानता एवं देखता है। केवलज्ञान का लक्षण वादिदेवसूरि ने इस प्रकार दिया हैनिखिलद्रव्यपर्यायसाक्षात्कारिस्वरूपं ज्ञानं केवलज्ञानम् । ,२३७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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