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२७४ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण
सेनापति देव की न मानी सभी बात कछु नियति के वश हो उदधि में मरत है। ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती ता• देवे सेो कई, होतव थी सोले वर्ष अधिक फिरत है। वाट उड़ जाने किसो सीचाणे ने रोक लीवी,
खलये पारधी तीर वाण ले धरत है। तिण समे अहेडीको डस्यो नाग अचानक
छूटो हाथ सेती तीर सीचाणो मरत है। उड़ गयो पंखीयो सो आल नहीं आयो रंच,
नियति के वशकर विघन टरत है। झट कालगत केई रण मांही बचे नर, नियति के वश सास धीर न धरत है। ऊँट अश्व ससादिक शृंग नहीं उगे कछु अभवी न जाने मोक्ष लेष्टु न तरत है। जन्म मरण जरा व्याधि रोग सोग जोग
दुःख सुख भूखादिक नियति करत है।। अर्थात् भवितव्यतावादी अपने पक्ष को सुदृढ़ करते हुए कहते हैं कि भवितव्य के बिना कोई भी कार्य नहीं होता है। बसन्त ऋतु में वृक्षों पर आम बार-बार लगते हैं, परन्तु उनमें से कुछ आम खट्टी अवस्था (कच्चे) में तथा कुछ आम पकने के बाद गिरते हैं। कोई व्यक्ति भवितव्यता के वश समुद्र में गिरकर भी बच जाता है एवं होनहार के कारण ही वनों में भटकता है। करोड़ों प्रयत्न करने के बावजूद भी नियत होनहार टलती नहीं है। होनहार के कारण ही विचार किये बिना ही वस्तु मिल जाती है। जो होने वाली बात नहीं है, वह प्रयत्नशील रहने पर भी नहीं होती है। जिस प्रकार मन्दोदरी रानी ने अपने स्वामी रावण को अनेक प्रकार से समझाया, परन्तु उसने बात को सुनी अनसुनी कर दी। अन्त में अपने ही चक्र से होनहार के कारण खुद मर
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