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नियतिवाद २५७ विहाणमागच्छंति, ते एवं संगइयंति। उवेहाए णो इयं विप्पडिवेदेति, तंजहाकिरिया ति वा जाव णिरए ति वा अणिरए ति वा। अर्थात् नियतिवादी कहते हैं कि पूर्व आदि दिशाओं में रहने वाले जो त्रस एवं स्थावर प्राणी हैं, वे सब नियति के प्रभाव से ही औदारिक आदि शरीर की रचना (संघात) को प्राप्त करते हैं। वे नियति के कारण ही बाल्य, युवा और वृद्ध अवस्था (पर्याय) को प्राप्त करते हैं और शरीर से पृथक् (मृत) होते हैं। वे नियतिवशात् काणा, कुबड़ा आदि नाना प्रकार की दशाओं को प्राप्त करते हैं। नियति का आश्रय लेकर ही नाना प्रकार के सुख-दुःखों को प्राप्त करते हैं।
सूत्रकृतांग की चूर्णि में 'इदाणिं आयछट्ठाऽफलवादि ति से अफलवाद सिद्धान्त का प्रतिपादन हुआ है। इनके मतानुसार आत्मा और लोक शाश्वत है। इन दोनों की उत्पत्ति नहीं होती है अपितु ये नियत हैं। असत् की भी कभी उत्पत्ति नहीं होती है। इन तथ्यों का प्रतिफल बताते हुए पं. दलसुख मालवणिया कहते हैं कि इस मत में नियति मात्र को स्वीकृति मिली है तथा पुरुषार्थ व कर्मवाद को अवकाश नहीं है। इनके मतानुसार इस मत को सत्कार्यवादी मानना उचित है, क्योंकि नियतिवाद के स्वीकार में ही असत् की उत्पत्ति का अस्वीकार संनिहित है। अतएव नियतिवादी सत्कार्यवादी हो यह स्वाभाविक है। भगवती, स्थानांग और सूत्रकृतांग की नियुक्ति में नियतिवाद
भगवती और स्थानांग में नियतिवाद का सीधा स्वरूप तो नहीं मिलता किन्तु आगम युग में प्रचलित मत एवं दर्शनों के अन्तर्गत इसका उल्लेख समुपलब्ध होता है।
. चत्तारि वादिसमोसरणा पण्णत्ता, तंजहा- किरियावादी, अकिरियावादी, अण्णाणियावादी वेणइयावादि। अर्थात् वादिसमवसरण चार कहे गए हैं- क्रियावादी, अक्रियावादी, अज्ञानवादी और विनयवादी।
यहाँ समवसरण शब्द मतों या दर्शनों के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। सूत्रकृतांग के समवसरण अध्ययन में इन मतों का संक्षिप्त वर्णन है। सूत्रकृतांग के नियुक्तिकार ने क्रियावादी के १८०, अक्रियावादी के ८४, अज्ञानवादी के ६७ और विनयवादी के ३२, कुल ३६३ भेदों की संख्या बताई है। वृत्तिकार ने इन चारों वादों के ३६३ भेदों को नामोल्लेखपूर्वक पृथक्-पृथक् प्रस्तुत किया है। इस पुस्तक के 'कालवाद नामक अध्याय में इनका विस्तार से विवेचन हुआ है। अत: यहाँ संक्षेप में नियतिवाद को प्रस्तुत किया जा रहा है
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