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२५२ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण
५. नियम्यन्ते सौरभादयो धर्मा अनेनेति नियतिरसाधारण: पद्मत्वादिरूपो ___ धर्मः। वस्तुतस्तु नियतिरदृष्टम् -सुधासागर टीका
उपर्युक्त उद्धरणों से स्पष्ट होता है कि कमल में सुगन्ध आदि का असाधारण धर्म नियति के द्वारा ही निर्धारित होता है। विवेक-टीकाकार ने सबकी उत्पत्ति में निमित्तभूत इस नियति को कर्म का ही दूसरा पर्याय स्वीकार किया है। दीपिका- टीकाकार ने उत्पत्ति और निरोध दोनों में नियति को कारण मानकर उसे अदृष्ट कहा है, जिसका समर्थन सुधासागर ने अपनी टीका में भी किया है। सम्प्रदाय प्रकाशिनी टीका में इसे नियामिका शक्ति के रूप में प्रतिपादित किया गया है।
संकेत टीकाकार ने समस्त पदार्थों के अपने-अपने आकार वर्णादि की व्यवस्था का नियामक हेतु मानते हुए इसे दैव का पर्यायान्तर स्वीकार किया है तथा शैव शास्त्र में मान्य ३६ तत्त्वों में एक तत्त्व के रूप में मानने का उल्लेख किया है'नियतिः सर्वपदार्थानां निजनिजसंस्थानमानवर्णादिव्यवस्थानियमहेतुः दैवपर्यायान्तरम्। तच्च-पंचभूत- पंचकर्मेन्द्रिय- पंचबुद्धीन्द्रिय- पंचविषयतत्त्वादिशिवतत्त्वपर्यन्तशैवशास्त्रोक्त- षट्त्रिंशत्तत्त्व मध्योक्तं तत्त्वान्तरम्।५
इस प्रकार असाधारण धर्म के नियामक तत्त्व के रूप में, कर्म के अपर पर्याय के रूप में, अदृष्ट के रूप में, नियामक शक्ति के रूप में तथा दैव के रूप में काव्यप्रकाश के टीकाकारों ने 'नियति' शब्द की व्याख्या की है।
जैनदर्शन में मान्य पंचसमवाय में कर्म और नियति को पृथक्-पृथक् स्वीकार किया गया है जबकि काव्यप्रकाश के टीकाकार नियति और कर्म या अदृष्ट में एकता प्रतिपादित कर रहे हैं। यहाँ यह अवश्य मानना होगा कि नियति एक नियामक तत्त्व है, जिसके द्वारा जगत् एवं पदार्थों की एक व्यवस्था बनी हुई है। दार्शनिक ग्रन्थों में नियति का स्वरूप बौद्ध त्रिपिटक में नियतिवाद
बौद्ध त्रिपिटक में सुत्तपिटक के अन्तर्गत दीघनिकाय के प्रथम भाग में मंखलि गोशालक के नियतिवाद की चर्चा उपलब्ध होती है। गोशालक ने बुद्ध के प्रश्न का उत्तर देते हुए अपने मत को स्पष्ट किया है- “प्राणियों के दुःख का कोई हेतु या प्रत्यय (कारण) नहीं है। बिना हेतु और प्रत्यय के ही प्राणी दुःखी होते हैं। प्राणियों की
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