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चतुर्थ अध्याय नियतिवाद
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उत्थापनिका
भारतीय दर्शन की परम्परा में कारण-कार्य पर गहन विचार हुआ है। मंखलिगोशालक की आजीवक सम्प्रदाय का मानना था कि सभी कार्य नियति से ही सम्पन्न होते हैं। प्राचीन वाङ्मय का अध्ययन करने पर विदित होता है कि नियतिवाद मंखलिपुत्र गोशालक की मान्यता के रूप में ही नहीं, अपितु भारतीय मनीषियों की बहुसम्मत मान्यता के रूप में प्रतिष्ठित रहा है। आगम, त्रिपिटक, उपनिषद्, पुराण, संस्कृत महाकाव्य एवं नाटकों में भी नियति के महत्त्व को स्पष्ट करने वाले उल्लेख उपलब्ध होते हैं।
सूर्य का उदय-अस्त होना और उसके साथ कमल का खिलना-मुाना, अग्नि का उष्ण होना और ऊर्ध्वगमन करना, जल का शीतल होना, क्रमशः दिन-रात का होना, मिट्टी से ही घड़ा बनना, बबूल के बीज से बबूल और आम के बीज से आम ही उगना, काँटों का तीखा होना, फूलों का कोमल होना, सर्दी के बाद गर्मी और गर्मी के बाद वर्षा ऋतु का आना, पतझड़ के मौसम में पत्ते गिरना, चैत्र में नवीन कोंपल फूटना, सावन में बरसात का होना, जन्म के साथ मृत्यु का निश्चित होना, मानव से मानव का पैदा होना, आँख से ही देखना, कान से ही सुनना, नाक से ही सूंघना, नक्षत्रों का एक क्रम से बदलना, सूरज का गरम होना और चाँद का शीतल होना, चन्द्रमा का क्रम से घटनाबढ़ना, प्रत्येक द्रव्य का पर्याय-परिणमन होना आदि दृश्यमान घटनाओं और कार्यों में नियमितता, क्रमिकता और निश्चितता को देखकर नियति के अतिरिक्त अन्य कारण को स्वीकार करना अशक्य प्रतीत होता है। इस प्रकार नियतिमात्र की कारणता का कथन करना नियतिवाद है। नियतिवाद की मान्यता है कि जगत् में नियति ही सबका कारण है और समस्त कर्मों का साधन है। आदिकाव्य रामायण में कहा गया है- 'नियतिः कारणं लोके, नियतिः कर्मसाधनम्' अर्थात् संसार में नियति ही कारण है और नियति ही कर्म का साधन है।
सूत्रकृतांग और प्रश्नव्याकरण की टीका में तथा सन्मतितर्क, शास्त्रवार्ता समुच्चय, उपदेशपद महाग्रन्थ, लोकतत्त्व निर्णय आदि दार्शनिक ग्रन्थों में जहाँ कहीं नियतिवाद का मन्तव्य प्रस्तुत हुआ है, वहाँ निम्न श्लोक नियतिवाद के दर्पण के रूप में अंकित हुआ है
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