SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 257
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १९६ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण पर्यायों का उत्पाद-व्यय ही नहीं गुणों का उत्पाद-व्यय भी स्वभाव से होता है। यथा-'स्वनिमित्तस्तावादनन्तानामगुरुलघुगुणानामागमप्रामा व्यादभ्युपगम्यमानानां षट्स्थानपतितया वृद्ध्या हान्या च प्रवर्तमानानां स्वभावादेव तेषामुत्पादो व्ययश्च २५७ अर्थात् आगम प्रमाण द्वारा स्वीकृत तथा षट्स्थानपतित वृद्धि और हानि के द्वारा प्रवर्तमान अनन्त अगुरुलघु गुणों का स्वभाव से उत्पाद और व्यय होता है। इसके अतिरिक्त स्वभाव को धर्म के रूप में भी प्रस्तुत किया गया हैवत्थुसहावो धम्मो।२५८ आधुनिक जैन चिन्तकों ने भी पदार्थ के स्वभाव पर विचार किया है। क्षुल्लक श्री जिनेन्द्रवर्णी ने वस्तु में स्वाभाविक रूप से होने वाले परिवर्तन को रूप परिवर्तन एवं स्थान परिवर्तन के आधार पर स्पष्ट किया है। उनका कथन है"स्वतन्त्र रूप से प्रवृत्ति करने के साथ वस्तु का जो रूप परिवर्तन और स्थान परिवर्तन होता है, वह स्वभाव है।"२५९ वस्तु का परिवर्तनशील स्वभाव रूप एवं स्थान के माध्यम से प्रकट होता है। अत: स्वतंत्र रूप से प्रवृत्ति करने के साथ वस्तु का जो रूप परिवर्तन और स्थान परिवर्तन होता है, वह स्वभाव है। यथा - जल का अग्नि संयोग से गरम होकर पुनः शीतल होना, (वाष्प) गैस- बर्फ (जल) के माध्यम से रूप परिवर्तन, बर्फ की अवस्था में जल का हिमालय पर रहना, पिघलकर मैदानों में तथा समुद्र में जाना, वाष्प बनकर आकाश में जाना आदि क्रियाओं से हिमालय, मैदान, समुद्र, आकाश रूप में स्थान परिवर्तन, पानी का ऊपर से नीचे की ओर बहना, नीचे से ऊपर की ओर न बहना आदि स्वतंत्र वृत्ति। जल की ये विभिन्न अवस्थाएँ स्वभाव रूप हैं। यह स्वभाव ही अन्य पदार्थों से जल को व्यावृत्त करता है। जहाँ अग्नि के संयोग से जल गरम हो जाता है वहीं अभ्रक पर उस संयोग का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। अग्नि संयोग होने पर जलना(गरम होना) जल का परिवर्तनशील स्वभाव है जबकि अग्नि संयोग होने पर भी अभ्रक का नहीं जलना अपरिवर्तनशील स्वभाव है। स्वभाव की ये विभिन्न संसार-विचित्रता का रहस्य है। रूप परिवर्तन व स्थान परिवर्तन वस्तु का स्वभाव है, इसलिए जल का गरम-ठण्डा होना, भाप-बर्फ बनना, पर्वतों से महासागरों में जाना आदि सभी जल के स्वभाव हैं। जल का शीतल स्वभाव तो लोक प्रसिद्ध है किन्तु उक्त अन्य स्वभाव वस्तु की परिवर्तनशीलता से स्वतः प्रमाणित है। प्रत्येक पदार्थ में अपने स्वभावानुसार परिवर्तन चलता रहता है। यह परिवर्तन अहेतुक है। ऐसा परिवर्तन वस्तु में नित्य दिखाई देता है। पदार्थ में एक क्षण भी परिवर्तन रुका हुआ नहीं दिखाई देता है। यदि वस्तु में स्वयं ऐसा परिवर्तन करने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy