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स्वभाववाद
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दुःख के प्रति स्वाभाविक ऐन्द्रियक प्रवृत्ति कारण है, तो सुख के प्रति आत्मा का अशुद्ध स्वभाव कारण है। अतः प्रवचनसार में कहा है- 'पप्पा इट्ठे विसये फासेहिं समस्सिदे सहावेण, परिणममाणो अप्पा सयमेव । २५४
इन्द्रिय सुख का कारण आत्मा का अशुद्ध स्वभाव है, क्योंकि अशुद्ध स्वभाव में परिणमित आत्मा ही स्वयमेव इन्द्रिय सुख रूप होता है । उसमें शरीर कारण नहीं है, क्योंकि सुखरूप परिणति और शरीर सर्वथा भिन्न होने के कारण सुख और शरीर में निश्चय से किंचित्मात्र भी कार्यकारणता नहीं है।
माइल्लधवल (१२वीं शती) ने स्वभाव के पर्याय शब्दों को श्लोक में आबद्ध किया है -
'तच्चं तह परमट्टं दव्वसहावं तहेव परमपरं ।
२५५
धेयं सुद्धं परमं एाट्ठा हुंति अभिहाणा ।।
अर्थात् तत्त्व, परमार्थ, द्रव्य स्वभाव, पर- अपर ध्येय, शुद्ध, परम ये शब्द एकार्थवाची हैं । ग्रन्थकार ने अन्यत्र स्वभाव प्रसंग में प्रयुक्त इन शब्दों को द्रव्य स्वभाव का वाचक कहा है।
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स्वभाव-विभाव पर्याय के आधार पर स्वभाव का स्वरूप
स्वभाव और विभाव के भेद से पर्यायें दो प्रकार की होती हैं। धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्य की केवल स्वभाव पर्यायें होती हैं। जीव और पुद्गल की दोनों प्रकार की पर्यायें होती हैं। विभाव से तात्पर्य ऐसे बाह्य निमित्तों से है, जिनमें विकल्प द्वारा परकर्तृत्व, प्रयोजकता या प्रेरकता स्वीकार की जाती है। धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्यों की जितनी भी पर्यायें अनादि काल से होती आ रही हैं, हो रही हैं और होंगी, इन सब पर विकल्प द्वारा परकर्तृत्व का व्यवहार लागू नहीं होता तथा उनके ऐसे बाह्य निमित्त नहीं है जिनसे विकल्प द्वारा प्रयोजकता स्वीकार की जावे। अतः इन चारों द्रव्यों की सब पर्यायों को स्वभाव पर्याय रूप से स्वीकार किया गया है।
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मुक्त जीवों की निश्चय सम्यग्दर्शन आदि रूप पर्यायें तथा पुद्गल द्रव्य के प्रत्येक परमाणु की परमाणु रूप में जो पर्यायें हैं, उन सभी पर परकृत का व्यवहार लागू नहीं होता, इसलिए वे भी स्वभाव पर्यायें हैं, ऐसा आगम में स्वीकार किया गया है। इसके अतिरिक्त जीवों ओर पुद्गलों की जितनी भी पर्यायें हैं, वे सभी विभाव पर्यायें है । २५६
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