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________________ स्वभाववाद १९३ कारणों से पुद्गल संहत होते हैं- स्व से और पर से। दो कारणों से पुद्गल भेद होता हैस्व से तथा पर से। उपर्युक्त 'सई' पद का अर्थ अभयदेव अपनी वृत्ति में 'स्वयं वेति स्वभावेन वा' करते हैं। मेघादि के समान स्वयं अपने स्वभाव से पुद्गल संहत होते हैं और पुरुष के प्रयत्न आदि दूसरे निमित्तों से भी पुद्गल संहत होते हैं। इसी प्रकार स्वयं अपने स्वभाव से पुद्गल भेद को प्राप्त होते हैं- बिछुड़ते हैं और दूसरे निमित्तों से भी पुद्गल भेद को प्राप्त होते हैं।२३८ अतः पुद्गल के संहत और भेद होने में स्वभाव और पर निमित्त या पुरुष प्रयत्न कारण हुए। सूत्रकृतांग टीका के मत में- स्वभाव के सम्बन्ध में कहा है - 'सर्वे भावाः स्वभावेन स्वस्वभावव्यवस्थिता: २३९ स्वभाव ही सभी पदार्थों का नियामक होता है। वह स्वतन्त्र होता है। उदाहरणार्थ शीतलता जल का स्वभाव है। जल में उष्णता अग्नि के संयोग से पैदा होती है, इसलिए जैसे ही जल अग्नि की परतन्त्रता से मुक्त होता है, पुनः शीतल हो जाता है। दिगम्बर परम्परा में स्वभाव की चर्चा पूज्यपादाचार्य ने समाधितन्त्र में 'तत्तत्त्वं परमात्मनः २४° से तत्त्व का अर्थ 'स्वरूप' व परमार्थ का अर्थ 'यथार्थ स्वरूप' किया है। स्वरूप का अभिप्राय स्वभाव से है। पर-अपर ध्येय को भी द्रव्यस्वभाव वाचक माना है, क्योंकि ध्यान परमात्मा का भी किया जाता है और स्वयं अपने में भी तन्मय हुआ जाता है, इन दोनों में ध्येय 'पर' और 'स्व' का स्वरूप ही है। द्रव्य स्वभाव तो शुद्ध होता ही है इसलिए इसे शुद्ध शब्द से भी कहा है। इस तरह उक्त सभी शब्द द्रव्य स्वभाव के वाचक हैं। समन्तभद्राचार्य ने स्वयंभूस्तोत्र में उल्लेख किया है कि असत् पदार्थ कभी उत्पन्न नहीं होता है और सत् पदार्थ का कभी नाश नहीं होता है। दीपक के जलने पर प्रकाश और बुझने पर अंधकार पुद्गल द्रव्य की ही भिन्न पर्यायें हैं, जो प्रतीति में आती है।२४१ राजवार्तिककार ने 'स्वेनात्मना असाधारणेन धर्मेण भवनं स्वभाव इत्युच्यते २४२ पंक्ति द्वारा असाधारण धर्म को स्वभाव बतलाया है। कसायपाहुड ४३ में 'को सहावो' प्रश्न के उत्तर में अन्तरंग कारण को स्वभाव कहा गया है। कुन्दकुन्दाचार्य ने उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यता को स्वभाव मानते हुए कहा है'दव्वस्स जो हि परिणामो अत्थेसु सो सहावो ठिदिसंभवणाससंबद्धो। २ सभी पदार्थ द्रव्य-गुण पर्याय में रहने वाले और उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यमय अस्तित्व के बने हुए हैं।०५ इनका यह स्वरूप अबाधित और नित्य है। चूंकि स्वभाव त्रिकालाबाधित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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