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________________ १८६ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण वाले आप अपने मत को स्वयं ही खण्डित कर देंगे। २१२ अतः कहा गया है न हेतुरस्तीति वदन् सहेतुकं ननु प्रतिज्ञां स्वयमेव बाधते । अथापि हेतुप्रणयालसो भवेत् प्रतिज्ञया केवलयाऽस्य किं भवेत् ११३ संक्षेप में कहा जा सकता है कि स्वभाववादियों के सभी हेतु दोषयुक्त होने के कारण अपने मत को स्थापित करने में समर्थ नहीं हैं। कादाचित्क हेतु साध्य के अभाव में भी रहता है, अतः वह साध्यविकल है। स्वभाववादियों ने आपवादिक स्थिति को बतलाकर कार्य-कारण सिद्धान्त दोषपूर्ण ठहराया है, जो कि उचित नहीं है। काँटों की तीक्ष्णता में मान्य 'अनुपलभ्यमानसत्ताकं कारणम्' हेतु भी बीजादि की उपलब्धि से असिद्ध होता है। इस संदर्भ में कहते हैं- 'न केवलं बीजादिः कारणत्वेन भावानां निश्चितः ', किन्तु देश-कालादिरपि - मात्र बीजादि ही काँटों की तीक्ष्णता के प्रति कारण नहीं है, अपितु देश कालादि भी कारण हैं। बीज, देश कालादि कारणों की उपस्थिति की प्रासंगिकता के साथ स्वभाववादी की प्रतिज्ञा में प्रत्यक्ष विरोध भी इस हेतु से उत्पन्न होता है। अतः कहा गया है'एवमनुपलभ्यमानसत्ताकं भावानां कारणमिति हेतोरसिद्धता, प्रतिज्ञायाश्च प्रत्यक्षविरोधो व्यवस्थितः । स्व और सर्व दोनों दृष्टियों से स्वीकार्य अनुपलब्धि हेतु भी खण्डित होता है। स्वभाववादियों द्वारा हेतु को कारक न मानकर ज्ञापक माना गया है, जो भी असंगत है। कारण कि ज्ञापक हेतु भी स्वपक्षसिद्धि का उत्पादक होने से कारक हेतु हो जाता है। इस प्रकार हेतु के स्वीकार करने पर प्रतिज्ञा - विरोध और अस्वीकार करने पर अप्रामाणिकता का भय स्वभाववाद को निर्मूल करता है। बौद्ध दार्शनिक शान्तरक्षित द्वारा तत्त्वसंग्रह में स्वभाववाद का उपस्थापन एंव निरसन बौद्ध दार्शनिक शान्तरक्षित (८वीं शती) विरचित 'तत्त्वसंग्रह' एवं उस पर कमलशील (८वीं शती) की पंजिका में भी स्वभाववाद की चर्चा समुपलब्ध है। यहाँ उसके अनुसार स्वभाव का निरूपण एवं निरसन प्रस्तुत है स्वभाववाद का निरूपण (१) सभी पदार्थों का जन्म 'सर्वहेतुनिराशंसं' अर्थात् सर्व हेतु अभाव से यानी स्वभाव से होता है। स्वभाववादी पदार्थोत्पत्ति में 'नाहुः स्वमपि कारणम्' कथन से 'स्व' और अपि से 'पर' इन दोनों को कारण अस्वीकार करते हुए कहते हैंसर्वहेतुनिराशंसं भावानां जन्म वर्ण्यते । स्वभाववादिभिस्ते हि नाहुः स्वमपि कारणम् ।।२१४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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