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१५२ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण
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होती है। इसलिए समस्त जगत् की स्थिति स्वाभाविक है । " सम्प्रति चार्वाक दर्शन को स्वभाववाद का अग्रणी दर्शन माना जाता है। जैन ग्रन्थों में स्वभाववाद का निरूपण
प्रश्नव्याकरण सूत्र एवं उसकी टीकाओं में
एक व्यक्तिगत विचार या मत इतना विराट् रूप नहीं ग्रहण करता जितना कि एक दार्शनिक मत। दार्शनिक अपने मत की पुष्टि में विभिन्न तर्क, हेतु एवं प्रमाण प्रस्तुत कर जनमानस में अपना स्थान बना लेता है। इसलिए उसका मत दीर्घकाल पर्यन्त प्रचलित रहता है और असंख्य - असंख्य लोगों को प्रभावित करता है। ऐसे विभिन्न मर्तों का नामस्मरण प्रश्नव्याकरण सूत्र में हुआ है, यथा
'जं वि इहं किंचि जीवलोए दीसइ सुकयं वा दुकां वा एयं जदिच्छाए वा सहावेण वावि दवतप्पभावओ वावि भव । णत्थेत्थ किंचि कयगं तत्तं लक्खणविहाणणियत्तीए कारियं एवं केइ जंपंति ।
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इस जीवलोक में जो कुछ भी सुकृत या दुष्कृत दृष्टिगोचर होता है, वह सब यदृच्छा से, स्वभाव से अथवा दैवप्रभाव अर्थात् विधि के प्रभाव से ही होता है। इस लोक में कुछ भी ऐसा नहीं है जो कृतक ( पुरुषार्थ से किया गया) तत्त्व हो । लक्षण (वस्तु स्वरूप) विधान की कर्त्री नियति ही है, ऐसा कोई कहते हैं।
प्रस्तुत सूत्र में यदृच्छावादी, स्वभाववादी, दैववादी, पुरुषार्थवादी एवं नियतिवादी के मन्तव्यों का उल्लेख सम्प्राप्त है । इनका विस्तार पूर्वक विवेचन इसकी वृत्ति में समुपलब्ध है। अभयदेव ( ग्यारहवी शती) की वृत्ति में 'नापि चास्ति प्राणवधालीकवचनम- शुभफलसाधनतयेति गम्यं, न चैव नैव च चौर्यकरणं परदारसेवनं चास्त्यशुभफलसाधनतयैव, सह परिग्रहेण यद्वर्तते तत्सपरिग्रहं तच्च तत्पापकर्म्मकरणं च पातकक्रियासेवनं तदपि नास्ति किंचित्, क्रोधमानाद्यासेवनरूपं नरकादिको च जगतो विचित्रता स्वभावादेव न कर्म्मजनिता, तदुक्तं- 'कण्टकस्य प्रतीक्ष्णत्वं, मयूरस्य विचित्रता । वर्णाश्च ताम्रचूडानां, स्वभावेन भवन्ति हि । । ' ति, मृषावादिता चैवमेतेषां स्वभावो हि जीवाद्यर्थान्तरभूतस्तदाप्राणातिपातादिजनितं कम्मैवासौ अथानर्थान्तरभूतस्ततो जीव एवासौ तदव्यतिरेकात् तत्स्वरूपवत्, ततो निर्हेतुका नारकादिविचित्रता स्यात्, न च निर्हेतुकं किमपि भवत्यतिप्रसंगादिति, नैरयिकर्तिर्यग्मनुजानां योनिः - उत्पत्तिस्थानं पुण्यपापकर्मफलभूताऽस्तीति
तथा
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