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स्वभाववाद १५१ हो सकता है। उसी प्रकार सभी कार्यों का नियत काल में उत्पन्न होना भी स्वभाव है। जिसे नैयायिक 'कादाचित्कत्व' कहते हैं। अत: नियत देश-काल रूप में नैयायिक भी स्वभाव को अंगीकार करते हैं।
पूर्वपक्ष- स्वभाव से ही सभी कार्य अकस्मात् होते हैं। स्वभाव ही वस्तु का उत्पत्तिकारक है। अत: पूर्वपक्षी कहते हैं- 'सन्तु ये केचिदवधयो न तु तेऽपेक्ष्यन्त इति स्वभावार्थः,२ इस वाक्य का इतना ही तात्पर्य है कि घट आदि कार्यों के उत्पत्ति के पूर्व दण्ड आदि अवधि या कारण विद्यमान भी रहते हैं, फिर भी कार्य की उत्पत्ति में उन अवधियों (कारणों) की अपेक्षा नहीं होती। अर्थात् घटादि कार्य अपने स्वभाव से ही उत्पन्न होते हैं।
उत्तरपक्ष- कार्य की उत्पत्ति के लिए दण्डादि कारणों की अपेक्षा नहीं होने का क्या तात्पर्य है? इसके दो अर्थ संभावित हैं- १. दण्ड आदि पदार्थ रूप कारण घट आदि कार्यों से अव्यवहित पूर्व क्षण में नियत रूप से नहीं रहते। २.नियत रूप से रहने पर भी घट आदि कार्यों की उत्पत्ति में उपकार नहीं करते।
उपर्युक्त दोनों पक्षों में से प्रथम पक्ष उपयुक्त नहीं है, क्योंकि कार्य यदि अपने अव्यवहित पूर्व क्षण में नियत रूप से न रहने वाले पदार्थों से भी उत्पन्न हो सकते हैं तो फिर जिस प्रकार धूम रूप कार्य की अवधि अग्नि होती है। उसी प्रकार रासभ भी धूम की अवधि हो सकता है। यदि दूसरा पक्ष स्वीकार किया जाए तो उपकार की आवश्यकता ही कहाँ है। कार्य की उत्पत्ति से अव्यवहित पूर्व क्षण में नियत रूप से रहने रूप कारण की ही अपेक्षा होती है। वह अलग से कोई उपकार नहीं करता, उसकी नियत पूर्वक्षण वृत्तिता ही कारण बनती है। यथा- अवधि-कपाल आदि घटकार्य के नियत पूर्ववर्ती होते हैं, फिर उनसे घट आदि में कोई उपकार नहीं होता। इस प्रकार का स्वभाववाद तो हम नैयायिकों को भी इष्ट है।३।
नैयायिकों को अनियतपूर्ववृत्ति में स्वभाव को कार्य की उत्पत्ति में कारण मानना इष्ट नहीं है। जबकि स्वभाववादी कारण-कार्य की व्याख्या में स्वभाव के अतिरिक्त किसी अन्य पदार्थ को कार्य की उत्पत्ति में कारण नहीं मानते हैं। नैयायिकों को स्वभाववादियों का यह मन्तव्य इष्ट नहीं है। चार्वाक दर्शन में स्वभाववाद
चार्वाक दर्शन में जगत् की विचित्रता को स्वभाव से ही उत्पन्न माना जाता है। उनका कथन है कि अग्नि स्वभाव से ही उष्ण, जल शीतल और वायु समस्पर्श
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