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________________ १४६ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण स्वभाववाद का उपस्थापन- 'अनिमित्ततो भावोत्पत्ति: कण्टकतैक्ष्ण्या-दिदर्शनात् ५ अर्थात् काँटे आदि में बिना कारण (स्वाभाविक) तीक्ष्णता दिखाई पड़ती है, इसी प्रकार संसार के समस्त भावरूप कार्यों की उत्पत्ति बिना कारण (स्वाभाविक) ही होती है। इस मत को और स्पष्ट करते हुए वात्स्यायन भाष्य में कहा गया है- "कण्टकतैक्ष्ण्यादिदर्शनात् कण्टकस्य तैक्ष्ण्यम्, पर्वतधातूनां चित्रता, ग्राव्णां श्लक्ष्णता, निर्निमित्तं चोपादानं दृष्टं तथा शरीरादिसर्गोऽपीति।"जिस प्रकार कांटों में तीक्ष्णता, पर्वत के गेरु आदि धातु द्रव्यों में विचित्रता, ग्रावा (पत्थरों) में श्लक्ष्णता (चिकनाहट) यह सब बिना निमित्त के दिखाई पड़ते हैं, उसी प्रकार शरीरादि की रचना भी बिना निमित्त कारण के ही होती है, यह सिद्ध होता है। खण्डन - (i) अनिमित्तनिमित्तत्वान्नानिमित्तत:६६- चार्वाक भावरूप कार्यों की उत्पत्ति में सभी कारणों को अस्वीकार करते हुए उसकी स्वाभाविक आकस्मिक उत्पत्ति ही मानते हैं। वे जिस अनिमित्त (स्वभाव) के सद्भाव से कार्य को निष्पन्न मानते हैं, वही अनिमित्त उस कार्य का निमित्त कारण है। अतः अनिमित्त ही निमित्त होने से चार्वाक मत का स्वतः खण्डन हो जाता है। (ii) निमित्तानिमित्तयोरर्थान्तरभावादप्रतिषेधः- निमित्त और निमित्त का निषेध रूप अनिमित्त भिन्न (अर्थान्तर) हैं। इस कार्य में यह कारण है या नहीं है, ऐसी प्रतीति होने से निमित्त तथा अनिमित्त दोनों का भेद स्पष्ट है। इसलिए कार्य की कारणता का निषेध नहीं हो सकता है। जिस प्रकार कमण्डल में जल नहीं है, यह कहने से जल का कमण्डल में निषेध भले ही हो, किन्तु जलमात्र का निषेध नहीं होता उसी प्रकार तीक्ष्णता की अनिमित्तता निमित्त या कारणमात्र का निषेध नहीं कर सकती। - इस प्रकार कारणवाद का निषेध करना शक्य नहीं है। वाक्यपदीय में स्वभाव की कारणता कारण-कार्य के संबंध में वाक्यपदीय में भर्तहरि ने कारण में कार्य को उत्पन्न करने का स्वभाव या सामर्थ्य अंगीकार किया है। यदि कार्य का प्रतिनियत कारण न माना जाए तो कारण का अन्य कारण एवं उसका भी अन्य कारण मानना होगा, जिससे अनवस्था दोष उपस्थित होगा। अन्त में कोई न कोई मूल कारण स्वीकार करना होगा। सांख्यदर्शन में मूल कारण प्रधान प्रकृति है, उससे ही व्यक्त प्रकृति उत्पन्न होती है। मूल या प्रधान प्रकृति का यह स्वभाव है कि उससे व्यक्त प्रकृति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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