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________________ तत्र जरामरणकृतं दुःखं प्राप्नोति चेतनः पुरुषः । लिंगस्याविनिवृत्तेस्तस्माद् दुःखं स्वभावेन । । १ अर्थात् लिंग शरीर और पुरुष का भेदज्ञान न रहने के कारण चेतन पुरुष शरीरादि में उत्पन्न जरा-मरण हेतुक दुःख भोगता है। यह दुःख स्वभाव से ही होता है। स्वभाववाद १४५ ज्योतिषमती व्याख्या'' में और अधिक स्पष्ट करते हुए कहा है- "लिंग की विनिवृत्ति जब तक न हो तब तक दुःख प्राप्ति चलती रहेगी। लिंग जब तक व्यक्त रहेगा तब तक यह वैषयिक चांचल्य द्वारा चंचल होता रहेगा- यह चांचल्य ही दुःख का मौलिक स्वरूप है। इस प्रकार लिंग शरीर की विनिवृत्ति तक दुःख स्वभाव से प्राप्त होता रहता है। सांख्यकारिका की माठरवृत्ति में ईश्वर, स्वभाव, काल की जगत् कारणता का अन्य मत के रूप में कथन कर स्वमत (सांख्यमत) का प्रतिपादन किया है। अतः अंत में प्रकृति को जगदुत्पत्ति का मूल कहा है। स्वभाव की कारणता को माठरवृत्ति में इस प्रकार स्पष्ट किया गया है 'अपरे स्वभावमाहुः। स्वभाव: कारणमिति । ' तथाहि ६३ नात्र कारणम् ।। 'केन शुक्लीकृता हंसाः शुकाश्च हरितीकृताः । स्वभावव्यतिरेकेण विद्यते कुछ स्वभाव को जगत् का कारण मानते हुए कहते हैं कि हंसों के सफेद और तोतों के हरित होने में स्वभाव के अतिरिक्त अन्य कोई कारण नहीं है। आचार्य माठर इस मत का निराकरण करते हुए कहते हैं- "स्वभावो नाम न कश्चिद् पदार्थोऽस्ति । यतः प्रजानामुत्पत्तिसंगतिः स्यात् । तस्मात् ब्रूते स्वभाव: कारणमिति तन्मिथ्या । ६४ स्वभाव कोई अतिरिक्त पदार्थ नहीं है। जिससे कि जगत् की उत्पत्ति मानी जाए। अतः जो कोई स्वभाव को जगत् का कारण मानते है, वह ठीक नहीं है। न्यायसूत्र (१५० ई.) एवं न्यायभाष्य ( चौथी शती) में स्वभाववाद का विमर्श अक्षपाद गौतम के न्यायसूत्र एवं वात्स्यायन के न्यायभाष्य में स्वभाववाद को चार्वाकमत स्वीकार करते हुए उसका उपस्थापन एवं खण्डन किया है, जिसका सारांश इस प्रकार है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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