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जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण
१४६. प्रवचनसार, अ. २, गाथा ४६-४७ १४७. सर्वार्थसिद्धि अ. ५, सूत्र ३८-३९ १४८. राजवार्तिक अ. ५, सूत्र ३८-३९ १४९. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक अ. ५, सूत्र ३८-३९ १५०. लोक प्रकाश, सर्ग २८, श्लोक ५-५५ १५१. धम्मो अहम्मो आगासं कालो पुग्गस-जंतवो।
एस लोगो त्ति पन्नत्तो जिणेहिं वरदंसीहि।। -उत्तराध्ययन सूत्र २८.७ १५२. सर्वार्थसिद्धि ५/२२/२९३ १५३. स्थानांग सूत्र, स्थान ४, उद्देशक १, सूत्र १३४ १५४. विशेषावश्यक भाष्य, गाथा २०३०-२०७५ १५५. लोकप्रकाश, सर्ग २८, श्लोक ९३, ९४ १५६. प्रवचनसार, गाथा १३५ का श्लोकांश १५७. सभाष्यतत्त्वार्थाधिगम सूत्र, अध्याय ५, सूत्र ३९ का भाष्य १५८. गोम्मटसार, जीवकाण्ड, गाथा ५६८ १५९. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा २१८ की टीका १६०. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा २१६ की टीका १६१. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, कुंथुसागर प्रकाशन, द्वितीय भाग, पृ. १४८ १६२. ऋतूनामपि षण्णां यः परिणामोऽस्त्यनेकधा। न संभवेत्सोऽपि कालं
विनातिविदितः क्षितौ। -लोकप्रकाश, सर्ग २८, श्लोक २५ १६३. तत्त्वार्थ सूत्र, अ.५, सूत्र २२ १६४. लोकप्रकाश, सर्ग २८, श्लोक ५८ १६५. वर्तना हि जीवपुद्गलधर्माधर्माकाशानां तत्सत्तायाश्च साधारण्याः सूर्यगम्यादीनां च
स्वकार्यविशेषानुमितस्वभावानां बहिरंगकारणापेक्षा कार्यत्वात्तंडुलपाकवत्
यत्तावबहिरंग कारणं स कालः।-तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकार, षष्ठ भाग पृ. १६५ १६६. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकारः षष्ठ खण्ड, पृ. १६९
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