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________________ ८८ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण एक तुलादंड रस्सियों से बंधे दो तुला-पात्रों में रखी वस्तु के गुरुत्व या भार का ज्ञान करा देता है उसी प्रकार काल से विभिन्न क्रियाओं का ज्ञान होता है। घट या पट के क्षिप्र या विलम्ब से निर्मित होने की एकाधिक क्रियाओं को काल विषय कर लेता है। परमात्म रूप काल अपनी माया शक्ति से विश्वरूपता को ग्रहण कर निमेषादि क्रिया के भेद से युक्त मानव क्रियाओं को चिर-अचिर आदि भावों से जानता है या ज्ञान कराता है। वाक्यपदीय में भविष्यत, वर्तमान और भूतकाल के अवान्तरभेदों का निरूपण करते हुए भूतकाल के पाँच, भविष्यत के चार तथा वर्तमान के दो प्रकार बताए गए हैं। भूतकाल के पाँच प्रकार है- १. भूत सामान्य २. अद्यतन भूत ३. अनद्यतन भूत ४. अद्यतन-अनद्यतन समुदाय भूत ५. भविष्यत् अद्यारोपित भूत। भविष्यत्काल के चार प्रकार हैं- १. सामान्य २. अद्यतन ३. अनद्यतन ४. अद्यतनअनद्यतन समुदाय। वर्तमान काल दो प्रकार का है- १. मुख्य वर्तमान २. अमुख्य वर्तमान। जैन ग्रन्थों में कालवाद की चर्चा आगम एवं उनकी टीकाओं में कालवाद के तत्त्व जैनागमों में कालवाद का स्पष्ट उल्लेख नहीं है, किन्तु सूत्रकृतांग में 'जगत्-कर्तृत्ववाद' का कथन करते हुए उस समय प्रचलित मान्यताओं का संकेत किया गया है, जिसमें व्याख्याकारों ने कालवाद का समावेश स्वीकार किया है "ईसरेण कडे लोए, पहाणाति तहावरे। जीवाऽजीवसमाउत्ते, सुह-दुक्खासमन्निए।। अर्थात् जीव-अजीव से व्याप्त और सुख-दुःख से युक्त यह लोक ईश्वर का बनाया हुआ है तथा दूसरे कहते हैं कि यह लोक प्रधान आदि के द्वारा कृत है। उपर्युक्त गाथा के 'पहाणाति' शब्द में निहित भावों को शतावधानी पं. मुनि श्री रतनचन्द्र जी महाराज ने अपनी पुस्तक 'सृष्टिवाद और ईश्वर' में इस प्रकार व्यक्त किया है "पहाणाति' में आदि शब्द से काल, स्वभाव, यदृच्छा और नियति इन चारों को ग्रहण किया गया है। क्योंकि उस समय ईश्वरवाद के साथ कालवाद, स्वभाववाद, यदृच्छावाद और नियतिवाद भी प्रचलन में थे और जनता में ये अपना प्रभुत्व स्थापित कर चुके थे।"८९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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