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________________ कालवाद ८७ में सूर्य का रथचक्र परमाणु मात्र प्रदेश को व्याप्त करे) से लेकर द्विपरार्ध पर्यन्त काल का आध्यात्मिक रूप है तथा 'कालोऽस्मि' वाक्य से भगवान स्वयं ही काल के आधिदैविक रूप हैं।८२ व्याकरण दर्शन में काल एवं उसकी कारणता प्रमुख वैयाकरण भर्तृहरि ने वाक्यपदीय के तृतीय काण्ड में काल समुद्देश के अन्तर्गत काल के स्वरूप एवं भेदों पर विस्तार से विचार करते हुए कार्य में काल की निमित्त कारणता स्वीकार की है। काल को उन्होंने अमूर्त क्रिया के परिच्छेद का हेतु प्रतिपादित किया है। जिस प्रकार मूर्त पदार्थों के परिच्छेद (मापन) के लिए दिष्टि (आयाम मान विशेष), प्रस्थ, सुवर्ण आदि स्वीकृत हैं उसी प्रकार काल अमूर्त क्रिया के परिच्छेद (मापन) के लिए हेतु होता है- कालोऽमूर्तक्रियापरिच्छेदहेतुः।२ उत्पत्ति, स्थिति और विनाश क्रियाओं में तथा इन क्रियाओं से युक्त पदार्थों की उत्पत्ति आदि में काल निमित्त कारण होता है। उपात्तौ च स्थितौ चैव विनाशे चापि तद्वताम् । निमित्तं कालमेवाहुर्विभक्तेनात्मना स्थितम्।। ४ उत्पत्ति, स्थिति और विनाश क्रियाओं से पदार्थों की समस्त क्रियाएँ गृहीत हो जाती हैं। बसंत आदि कालों में उस ऋतु के पुष्प, कोकिलरव आदि साधन शक्तियों की प्रवृत्ति दिखाई पड़ने से उनका प्रयोजक निमित्त काल अनुमित होता है। काल से प्रेरित होकर के ही शक्तियाँ पदार्थों में जन्मादि की क्रियाएँ करती हैं। भर्तृहरि ने परब्रह्मवाची विश्वात्मा को ही काल के रूप में निरूपित करते हुए उसे विभु या स्वतन्त्र बतलाया है। जलयन्त्रभ्रमावेशसदृशीभिः प्रवृत्तिभिः। स कला: कलयन् सर्वाः कालाख्याँ लभते विभुः।। ५ . जिस प्रकार कुएँ से जल निकालने के लिए अरहट को घुमाया जाता है, उसी प्रकार यह विश्वात्मा काल विभिन्न प्रकार की प्रवृत्तियों (आवृत्तियों) से विभिन्न पदार्थों की अवस्थाओं को निर्मित करता है। उत्पन्न पदार्थों की समस्त अवस्थाओं में काल का व्यापार व्यवस्थित है'प्रत्यवस्थं तु कालस्य व्यापारोऽत्र व्यवस्थितः। ६ काल के अनुमान में अन्य हेतु प्रस्तुत करते हुए कहा है कि घड़ा देर से बनाया गया, घड़ा शीघ्र बनाया गया, वस्त्र देर से बनाया गया, वस्त्र शीघ्र बनाया गया, इनमें सर्वत्र काल अनुगत है। जिस प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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