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कालवाद ८१ यदि काल को ही सब क्रियाओं का कारण मानते हो तब तो किसी का किसी के साथ वैर नहीं होना चाहिए; फिर अपने भाई-बन्धुओं के मारे जाने पर उसके सगेसंबंधी बदला क्यों लेते हैं? वैद्य लोग रोगियों की दवा करने की अभिलाषा क्यों करते हैं? यदि काल ही सबको पका रहा है तो दवाओं का क्या प्रयोजन है। यदि आप काल को ही प्रमाण मानते हैं तो शोक से मुर्छित हुए प्राणी क्यों महान् प्रलाप एवं हाहाकार करते हैं? फिर कर्म करने वालों के लिए विधि-निषेध रूपी धर्म के पालन का नियम क्यों रखा गया है? श्रीमद्भगवद् गीता में काल का परमात्म स्वरूप
श्रीमद्भगवद् गीता में भगवान श्री कृष्ण ने स्वयं को काल कहा है, जैसा कि एकादश अध्याय में वे अर्जुन से कहते हैं कि मैं काल हूँ। मैं सम्पूर्ण जगत् का सर्जन, पालन और संहार करने वाला साक्षात् परमेश्वर हूँ। इस समय मुझको तुम इन सबका संहार करने वाला साक्षात् काल समझो। इसी प्रकार दशम अध्याय में श्रीकृष्ण ने स्वयं को गणना करने वाला काल कहा है। ज्योतिर्विद्या में कालवाद
ज्योतिश्शास्त्र पूर्णतः काल पर आधारित है। ज्योतिर्विद प्रत्येक घटना में काल को कारण मानते हैं। व्यक्ति के जीवन में भूत, भविष्य और वर्तमान की घटनाओं का आकलन वे उस व्यक्ति की जन्म कुण्डली से करते हैं और जन्म कुण्डली जन्म काल के आधार पर बनती है। इसी प्रकार मूल रूप से काल को कारण मानते हुए विभिन्न कार्यों का सम्पादन स्वीकार करते हैं।
सभी ज्योतिषाचार्य जातकशास्त्रीय विशिष्ट मान्यताओं को एकमत होकर अंगीकार करते हैं। 'कालपुरुष पर मेषादि द्वादश राशियों का स्थान निर्धारण' इन्हीं मान्यताओं में से एक है। इसके अन्तर्गत काल को एक पुरुष के रूप में माना गया है। पुरुष का शरीर सिर, कण्ठ, वक्ष, हस्त, पेट और पैर आदि प्रमुख अंगों से बना होता है, उसी प्रकार कालपुरुष का भी शरीर मेषादि द्वादश राशियों से बना है। कालचक्र को ज्योतिष कर्मज्ञों ने वैज्ञानिकता पूर्वक विभाजित किया है और मानव के लिए यह हर क्षण किस प्रकार उपयोगी है, इसका भी निरूपण किया है। आचार्य पराशर ने सबसे पहले काल को विष्णु रूप में स्वीकार किया है।५२ इतना ही नहीं पराशर ने विष्णु रूपी काल के अंगों का उल्लेख करते हुए उनमें मेषादि राशियों की स्थापना की।५२ 'जातकपारिजात' में कालपुरुष के अंगों पर मेषादि राशियों की स्थापना इस प्रकार प्राप्त होती है
"कालात्मकस्य च शिरोमुखदेशवक्षो, हृत्कुक्षिभागकटिवस्तिरहस्यदेशाः।
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