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________________ ८० जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण लदना आदि परिवर्तनों का काल नियामक है। असमय में पक्षी, सर्प, जंगली मृग, हाथी, शैल मृग मतवाले नहीं होते, स्त्रियाँ गर्भ धारण नहीं करती और सर्दी-गर्मी-वर्षा भी नहीं होती। ये प्राकृतिक परिवर्तन ही नहीं मानव का विकास भी काल के अधीन है, जैसे-समय आने पर जन्म लेना, चलना और बोलना प्रारम्भ करना, किशोर-युवावृद्ध होना और अन्त में मरण को प्राप्त होना। प्राकृतिक परिवर्तन और मानव-विकास के अतिरिक्त मन्त्र, औषध और शिल्पकलाएँ उचित काल के बिना निष्फल हो जाते हैं “नाभूतिकालेषु फलं ददन्ति , शिल्पानि मन्त्राश्च तथौषधानि। तान्येव कालेन समाहितानि, सिद्ध्यन्ति वर्धन्ति च भूतिकाले।। महाभारत में काल का स्वरूप बताते हुए कहा गया है- 'निश्चितं कालनानात्वमनादिनिधनं च यत्' अर्थात् निश्चय ही काल के अनेक रूप हैं और उसका न आदि है न अन्त। काल अनेक रूप वाला होने से एक समय में भी विभिन्न कार्यों में कारण हो सकता है। आदि अन्त रहित होने से वह भूत-वर्तमान-भविष्य में घटित सभी कार्यों में कारण होता है। ये दोनों तथ्य उपर्युक्त श्लोकांश से स्वतः प्रमाणित होते हैं। एक स्थान पर ऋषियों ने धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र और मोक्षशास्त्र में काल की कारणता को प्रतिपादित करते हुए कार्य सिद्धि का प्रधान उपाय ‘काल और देश' को कहा है। महाभारत में कालवाद के प्रतिपादन के साथ खण्डन भी प्राप्त होता है। काल ही सभी क्रियाओं का कारण होने से जीवन में आने वाली खुशियों एवं मुश्किलों का हेतु है। किन्तु लोक में विभिन्न प्रसंगों पर कालवाद का अस्तित्व खण्डित होता है जिसका दर्शन निम्न श्लोकों में होता है 'यदि कालः प्रमाणं ते न वैरं कस्यचिद् भवेत्। कस्मात् त्वपचितिं यान्ति बान्धवा बान्धवैर्हतैः।। भिषजो भैषजं कर्तुं कस्मादिच्छन्ति रोगिणः। यदि कालेन पच्यन्ते भेषजैः किं प्रयोजनम्।। प्रलापः सुमहान् कस्मात् क्रियते शोकमूच्छितैः। यदि कालः प्रमाणं ते कस्माद् धर्मोऽस्ति कर्तृषु।। यह प्रयोग पाणिनि सम्मत नहीं है, किन्तु महाभारत में यही प्रयोग है। ऐसे प्रयोग अन्यत्र भी महाभारत में मिलते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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