________________
४२ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण ९. पंचेन्द्रिय- (१) नारकी- दुःख भोगना (२) तिर्यच- मछली आदि का
तैरना, पक्षियों का उड़ना, पशुओं का चलना, सर्पादि का रैगना आदि। (३) मनुष्य- मुक्ति हेतु प्रयत्न करना, दुःख देना, सेवा कार्य करना, कषायों को मन्द करना आदि। (४) देवता- सुख भोगना।
अजीव में कार्य- अजीव में भी विनसा परिणत एवं प्रयोग परिणत दोनों प्रकार के कार्य उपलब्ध होते हैं। जैन दर्शन में पाँच प्रकार के अजीव द्रव्य हैं - धर्म, अधर्म, आकाश, काल और पुद्गल। धर्म, अधर्म, आकाश एवं काल में स्वाभाविक अर्थात् विस्रसा परिणमन पाया जाता है, जबकि पुद्गल में दोनों प्रकार के परिणमन हो सकते हैं। धर्म, अधर्म, आकाश एवं काल अमूर्त हैं, उनमें जो भी परिणमन होता है, वह स्वतः होता रहता है। उनकी पर्याय स्वत: बदलती रहती है। मूर्त द्रव्य पुद्गल की पर्याय स्वतः भी परिवर्तित होती है तथा प्रयोग परिणत कार्य भी उसमें देखा गया है। जैन दर्शन में प्रतिक्षण प्रत्येक द्रव्य का पर्याय-परिणमन स्वीकार किया गया है, जो विनसा-परिणमन रूप ही होता है। जीव के द्वारा प्रयत्नपूर्वक तन्तुओं से वस्त्र, मिट्टी से घट आदि बनाए जाते हैं, वे पुद्गलों में होने वाले प्रयोग परिणत कार्य हैं।
जीव एवं पुद्गल के संयोग से कार्य- संसारी जीव कर्मरूपी पुद्गल से संयुक्त हैं, अत: उनका परिणमन वैभाविक परिणमन कहलाता है। इस दृष्टि से जीव की पर्याय दो प्रकार की हो सकती है- १. स्वभाव पर्याय २. विभाव पर्याय। जीव के ज्ञान, दर्शन आदि गुणों का परिणमन स्वभाव पर्याय है तथा क्रोध, मान, माया एवं लोभ कषायों का परिणमन विभाव पर्याय है। क्योंकि क्रोधादि जीव के स्वरूप नहीं है।
अनादिनिधन जीव में स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा की निम्न गाथा कार्यकारणभाव को प्रकट करती है
जीवो आणाई-णिहणो परिणममाणो हु णव-णवं भावं।
सामग्गीसु पवदि कज्जाणि समासदे पच्छा।।१००
अनादि-अनन्त जीव द्रव्य में प्रति समय नई-नई पर्याय उत्पन्न होती रहती हैं। इन पर्यायों को उत्पन्न करने के लिए वह जीव, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव आदि कारण सामग्री से युक्त होने के पश्चात् नई-नई पर्यायें रूपी कार्य को उत्पन्न करता है। जैसे-कोई जीव देव पर्याय को धारण करने के पूर्व समीचीन व्रतों का पालन, सामायिक, धर्मध्यान आदि कारण सामग्री को अपनाता है। कोई जीव नारकी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org