________________
जैनदर्शन में कारणवाद और पंचसमवाय ३९ पुद्गलास्तिकाय से जीवों के औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस, कार्मण, श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, जिङ्केन्द्रिय, सपर्शनेन्द्रिय, मनोयोग, वचनयोग, काययोग और श्वास-उच्छ्वास का ग्रहण करने की प्रवृत्ति होती है। इस प्रकार पुद्गल की कारणता विभिन्न कार्यों से स्पष्ट है। जीवास्तिकाय की कारणता
___ भगवती सूत्र में जीव एक-दूसरे के कैसे उपकारी या कारणभूत होते हैं, यह प्रतिपादित किया गया है
"जीवऽथिकाए णं जीवे अणंताणं आभिणिनोहियनाणपज्जवाणं अणंताणं सुयनाण-पज्जवाणं। उवयोगलक्खाणे णं जीवे।'
अर्थात् जीवास्तिकाय के द्वारा जीव अनन्त आभिनिबोधिक ज्ञान की पर्यायों को, अनन्त श्रुतज्ञान की पर्यायों को प्राप्त करता है। जीव का लक्षण उपयोग रूप है। गुरु शिष्य को प्रतिबोध देकर और शिष्य गुरु की आज्ञा का पालन कर, उनके अनुशासन में रहकर दोनों एक-दूसरे के लक्ष्य में सहयोगी बनते हैं। जीव एक-दूसरे के सहयोग के बिना जीवनयापन करने में असमर्थ हैं, इसी बात को इंगित करते हुए तत्त्वार्थसूत्रकार ने लिखा है
"परस्परोपग्रहो जीवानाम्'८ एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीव परस्पर उपग्रह करते हैं। उनका यह उपग्रह सहकारी या निमित्त कारण के रूप में स्वीकार्य है।
उमास्वाति (२-३ शती) ने जहाँ जीवों को परस्पर कारणभूत माना है, वहाँ कुन्दकुन्दाचार्य ने जीव और पुद्गल में भी परस्पर कारणता स्वीकार की है। वे जीव और पुद्गल में निमित्त-नैमित्तिक संबंध बताते हैं
जीवपरिणामहेदुं कम्मत्तं पुग्गला परिणंमति।
पुग्गलकम्मणिमित्तं तहेव जीवोवि परिणमड़।।९ अर्थात् जीव के (रागादि) परिणाम के निमित्त से पुद्गल कर्मरूप से परिणमित होते हैं। इसी प्रकार जीव भी (मोहनीय आदि) पुद्गल कर्म निमित्त से (रागादि भाव रूप से) परिणमन करता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org