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________________ 96 / साध्वी श्री सम्यग्दर्शना श्री तस्मात् आज्ञाबाह्येषु, अविशुद्दालम्बनेषु न रमेत। ज्ञानादिवृद्दिजनकं, तत, पुनः ग्राह्यम् जिनाज्ञया।। 232 ।। इसलिये साधु अपनी बुद्धि से जिनाज्ञा विरुद्ध अविशुद्ध आलम्बनों में रमण न करें। ज्ञान आदि में वृद्धि जनक उन आलम्बनों को भी पुनः जिनेश्वर भगवान द्वारा कथित विधि से ही ग्रहण करें। काहं अछित्तिं अदुवा अहीहं, तवोविहाणेण य उज्जमिस्सं। गच्छं च नीईए (नई अइ?) सारइस्सं, सालंबसेवी समुवेइ मोक्खं ।। 233 ।। करिष्यामि अव्यवच्छित्तिं अथवा अध्यष्ये तपो विधानेन च उद्यमिष्ये । गच्छं च नीत्या सारयिष्यामि, सालम्ब-सेवी समुपैति मोक्षं ।। 233 ।। क्या मैं विधिपूर्वक तप साधना के द्वारा अध्ययन हेतु प्रयत्न करूं या फिर तीर्थ उत्छेद का दोषी बनूं ? मेरे लिये तीर्थ उच्छेद का भागीदार बनना तो उचित नहीं है। अतः आलम्बन आदि का सहयोग लेकर गच्छ की नीति के अनुसार तप करते हुये अध्ययन के लिये ही प्रयत्न करूँगा, क्योंकि जो जिनाज्ञा का उल्लंघन किये बिना आलम्बनों का सहयोग लेता है वह मोक्ष को ही प्राप्त करता है। सालंबणो पडतो, अप्पाणं दुग्गमे वि धारेइ। इय सालंबणसेवा, धारेइ जई असढभावं ।। 234|| सालम्बनः पतन्तं, आत्मानम् दुर्गमेऽपि धारयति। इति सालम्बन सेवा, धारयति यति अशठभावं ।। 234।। ज्ञानादि रूप परिपुष्ट आलंबन से युक्त साधु अपनी आत्मा को गिरने से बचा लेता है। पुनः इस ज्ञानालम्बन से युक्त यति निष्कपट भाव को धारण करता है। उस्सेग्गेण निसिद्ध, अववायपयं निसेवए असढो। अप्पेण बहु इच्छइ, विशुद्धमालंबणो समणो।। 235 ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002507
Book TitleUpdesh Pushpamala
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages188
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, P000, & P050
File Size7 MB
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