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उपदेश पुष्पमाला/ 97
उत्सर्गेण निषिद्धं, अपवादपदं निषेवते अशठः । अल्पेन बहु इच्छति, विशुद्धालम्बनः श्रमणः ।। 235 ।। जिस परिस्थिति में आगम में उत्सर्ग मार्ग अर्थात् सामान्य विधि का निषेध किया गया है, उस समय यदि यति निष्कपट भाव से अपवाद मार्ग का अर्थात् उत्सर्ग मार्ग की अपेक्षा अनेषणीय, स्थान का भी सेवन करता है, तो भी वह विशुद्धालम्बन युक्त श्रमण संयम में आंशिक स्खलना करके भी अधिक संयम के लाभ की ही इच्छा करता है।
पडिसिद्धं पि कुणतो, आणाए दव्वखित्तकालन्नु । सुज्झइ विसुद्धभावो, कालयसूरिव्वव जं भणियं ।। 236 ||
प्रतिषिद्धं अपि कुर्वन, आज्ञया द्रव्यक्षेत्रकालज्ञः । शुध्यति विशुद्धभावः कालकसूरि इव यत् भणितं ।। 236 ।। देश, काल एवं परिस्थिति वश मुनि सामान्यतया जिनाज्ञा द्वारा निषिद्ध का सेवन करता हुआ भी विशुद्ध भाव होने से अपनी आत्मा को परिशुद्ध ही करता है। इस सम्बन्ध में कालकाचार्य, जो द्रव्य, क्षेत्र कालज्ञ थे और जिनाज्ञा के ज्ञाता थे, उनका उदाहरण द्रष्टव्य है।
जा जयमाणस्स भवे, विराहणा सुत्तविहिसमग्गस्स। सा होइ निज्जरफला, अज्झत्थविसोहिजुत्तस्स।। 237 ।।
या यतमानस्य भवेत् विराधना सूत्रविधिसमग्रस्य। सा भवति निर्जरफला, अध्यात्मविशोधियुक्तस्य।। 237 ।। यतनावान् अर्थात् अप्रमत या सजग आगम विधि के ज्ञाता गीतार्थ मुनि द्वारा जो यत्किंचित् विराधना होती है उससे वह आत्म–विशुद्धि में तत्पर होकर अशुभ कर्मों की निर्जरा ही करता है। __ जे जत्तिया य हेऊ भवस्स ते चेव तत्तिया मुक्खे। गणणाईया लोगा, दोण्ह वि पुण्णा भवे तुल्ला ।। 238 {{
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