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उपदेश पुष्पमाला / 95
द्रव्यस्तवः च भावस्तवः च बहुगुणौ इति बुद्धिः स्यात् । अनिपुणमतिवचनमिदं षड्जीवहितं जिना ब्रुवते ।। 229 ।। द्रव्यस्तव तथा भावस्तव इन दोनों में अन्योन्य अपेक्षा से द्रव्यस्तव अधिक गुणवाला है। जिस प्रकार किसी की ऐसी बुद्धि हो तो उसकी यह बुद्धि (विचार) असमीचीन है क्योंकि जिनेश्वर परमात्मा ने इसे षड्जीवनिकाय के हित के लिये कहा है ।
छज्जीवकायसंजमो, दव्वत्थए सो विरुज्झए कसिणो । ता कसिणसंजमविऊ, पुप्फाईणं न इच्छति ।। 230 ।। षड्जीवकायसंयमः, द्रव्यस्तवे सः विरूध्यते कृत्स्नः । तत् कृस्नसंयमित्वा, पुष्पादीन् न इच्छन्ति । । 230 ।। षड्जीव निकाय के रक्षक मुनि संयम के विरुद्ध पुष्पाद्यारम्भ रूप इस द्रव्यस्तव की इच्छा भी नहीं करते हैं।
अकसिणपवत्तगाणं, विरयाविरयाण एस खलु जुत्तो । संसारपयणुकरणे, दव्वत्थए कूवादिद्वंतो ।। 231 ।। अकृत्स्नप्रवर्तकानां, विरताविरतानां एषः खलु युक्तः ।
संसारप्रतानुकरणे, द्रव्यस्तवे कूपद्दष्टान्तः ।। 231 ||
देश विरति रूप असम्पूर्ण संयम या देश संयमी गृहस्थों के लिये ही यह द्रव्यस्तव उपयुक्त माना गया है, क्योंकि यह उनके संसार को अल्प करने का हेतु है। इसके समर्थन में भगवान् अर्हत् ने कूप खनन का दृष्टान्त दिया है।
तो आणावझेसु, अविसुद्वालंबणेसु न रमेज्जा ।
नाणाइवुड्डजणयं तं पुण गेज्झं जिणाणाए ।। 232 । ।
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