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________________ 92 / साध्वी श्री सम्यग्दर्शना श्री जिस प्रकार इच्छित वस्तु में मन लगाने मात्र से कार्य की सिद्धि नहीं हो जाती है, उस हेतु प्रयत्न करना होता है उसी प्रकार मोक्ष प्राप्ति रूपी कार्य की सिद्धि भी बिना पुरुषार्थ के नहीं होती है उस हेतु मनोनिग्रह करना होता है । प्रसन्नचन्द्रादि के आख्यानों से इस तथ्य को समझा जा सकता है । अहरगइपट्ठियाणं, किलिट्ठचित्ताण नियडिबहुलाणं । सितुंडमुंडणेणं, न वेसमेत्तेण साहारो ।। 221 ।। अधरगतिप्रस्थितानां क्लिष्टचित्तानां निकृतिबहुलानाम् । शिरस्तुण्डमुण्डनेन, न वेषमात्रेण साधारः ।। 221 || मस्तक मुण्डन करा लेने से अथवा वेश धारण कर लेने मात्र से साधुत्व सिद्ध नहीं होता, क्योंकि मिथ्यादृष्टि द्वारा किया गया यह प्रदर्शन उन्हें अधोगति की ओर ले जाने वाला ही होता हैं । वेलंबगाइएस वि, दीसइ लिंगं न कज्जसंसिद्धी । पत्ताइं च भवोहे, अणंतसो दव्वलिंगाई ।। 222 ।। विडम्बकादिकेषु अपि दृश्यते लिङ्गं न कार्यसंसिद्धिः । प्राप्तानि च भवोघे, अनन्तशः द्रव्य - लिङ्गानि ।। 222 || विदूषक के समान मात्र बाह्य रूप से यतिवेष धारण करने वाले साधुओं के पास रजोहरणादि मुनि के बाह्य चिह्न (लक्षण) अवश्य दिखाई देते हैं, लेकिन उनसे कार्य की सिद्धि नहीं होती है क्योंकि इस जीव ने संसार मे भव भ्रमण करते हुए अनन्त बार इन लिङ्गों अर्थात् मुनिवेश को धारण किया है परन्तु मोक्ष रूपी साध्य की सिद्धि नहीं हो सकी। तम्हा परिणामो च्चिय, साहइ कज्जं विणिच्छओ एसो । ववहारनयमएणं, लिंगग्गहणं पि निद्द्द्विं || 223 ।। तस्मात् परिणामः एव साधयति कार्य विनिश्चयः एषः । व्यवहारनयमतेन, लिङ्गग्रहणं अपि निर्दिष्टं । । 223 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002507
Book TitleUpdesh Pushpamala
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages188
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, P000, & P050
File Size7 MB
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