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उपदेश पुष्पमाला/ 91
कः चक्रवर्तिसमृद्धिं, त्यक्त्वा दासत्त्वं समभिलषति। को वा वररत्नानि मुक्त्वा परिगृण्हाति उपलखण्डानि।। 217 || ऐसा कौन होगा जो चक्रवर्ती साम्राज्य का त्याग करके दासत्व को स्वीकार करेगा ? अथवा ऐसा कौन होगा जो श्रेष्ठ रत्नों का त्याग करके पत्थर के कंकरों का परिग्रहण करना चाहेगा ?
नेरइयाण वि दुक्खं, झिज्झइ कालेण किं पुण नराणं ?। ता न चिरं तुह होहि, दुक्खमिणं मा समुव्वियसु।। 218।।
नारकाणामपि दुःखं क्षीयते कालेन किं पुनर्नराणाम् । तस्मात् न चिरं तव दुखं भवति, दुःखमिदं मा समनुद्विजस्व ।। 218।। नारकीय जीवों का वह दुःख भी समय बीतने पर समाप्त हो जाता है तो स्वल्पआयु वाले मनुष्यों का कष्ट या दुःख क्यों नष्ट नहीं हो सकता है ? अतएव तुम्हारा यह भी दुःख चिरकाल तक रहने वाला नहीं है। अतः व्याकुलता का परित्याग कर दो।
इय भावंतो सम्म, खंतो दंतो जिइंदिओ होउं। हत्थित्व अंकुसेणं, मग्गम्मि ठवेसु नियचित्तं ।। 219 ।। इति भावयन् सम्यक, क्षान्तः दान्तः जितेन्द्रियश्च भूत्वा ।
हस्तिनं इव अंकुशेन, मार्गे स्थापय निजचित्तं ।। 219 ।। इस प्रकार समभाव पूर्वक शांत, दांत और जितेन्द्रिय होकर मोक्ष मार्ग में या संयम मार्ग में अपने चित्त को उसी प्रकार स्थापित करो जिस प्रकार महावत अंकुश से मदोन्मत्त हाथी को भी वश में कर लेता है।
जम्हा न कज्जसिद्धी, जीवाण मणम्मि अट्ठिए ठाणे। एत्थ पुण आहरणं, पसन्नचंदाइणो भणिया।। 220 ।। यस्मात् न कार्यसिद्धिः, जीवानां मनसि अस्थिते सति। अत्र पुनः उदाहरणं प्रसन्नचन्द्रादयः भणिता।। 220 ।।
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