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________________ 90 / साध्वी श्री सम्यग्दर्शना श्री एवं हि कम्मवसओ, अरई चरणम्मि होज्ज जइ कहवि। तो भावणाए सम्मं, इमाए सिग्घं नियत्तेज्जा।। 214|| एवं अपि कर्मवशतः अरतिः चरणे भवेत् यदि कथमपि। ततः भावनया सम्यक् अनया शीधं निवर्तयेत्।। 214।। इसी प्रकार यदि साधु को पूर्वबद्ध कर्मवश चारित्र में किसी तरह अरूचि हो जाय तो समभाव पूर्वक शीघ्र ही उसका निवारण कर लेना चाहिये। सयलदुहाणावासो, गिहवासो तत्थ जीव! मा रमसु । जं दूसमाए गिहिणो, उयरंपि दुहेण पूरंति।। 215 ।। सकलदुःखानामावासः, गृहवासः तत्र जीव! मा रमस्व। यस्मात् दूष्माकाले गृहिण: उदरमपि दुःखेन पूरयन्ति ।। 215 ।। हे आत्मन्! सभी दुःखों के निवास स्थान रूप इस गृहवास में रमण मत कर। क्योंकि इस दुषम काल में गृहस्थों की उदर पूर्ति भी बड़े कष्ट से होती है। जललवतरलं जीयं, अथिरा लच्छी वि भंगुरो देहो। तुच्छ य काममोगा निबंधणं दुक्खलक्खाणं ।। 216 ।। जललवतरलं जीवं, अस्थिरा लक्ष्मी अपि भगुरःदेहः। तुच्छाः च कामभोगाः, निबंधनं दुःखलक्षाणाम्।। 216 ।। जीवन घास के अग्रभाग पर रहे हुए ओसबिन्दु सम नश्वर है, ऐश्वर्य (लक्ष्मी) भी स्थिर नहीं है तथा शरीर भी क्षण भङ्गुर है, उसी प्रकार काम भोगादि भी निस्सार है, ये सभी अनेक दुःखों के मूल हेतु है। को चक्कवट्टिरिद्धिं, चइउं दासत्तणं समभिलसइ ?। को वररयणाई मोत्तुं, परिगिण्हइ ? उवलखंडाई।। 217 ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002507
Book TitleUpdesh Pushpamala
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages188
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, P000, & P050
File Size7 MB
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