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उपदेश पुष्पमाला/ 89
आत्मा सुगतिं साधयति, सुप्रयुक्तः दुर्गतिं दुष्प्रयुक्तः । तुष्ट: रूष्ट: च परः न साधकः सुगतिकुगतयोः।। 210 ।। ज्ञानादि मार्ग में स्थित आत्मा ही सुगति को प्राप्त होती है। उसी प्रकार उन्मार्ग में अवस्थित आत्मा दुर्गति को प्राप्त होती है। साधक न सुगति से संतुष्ट होता है न दुर्गति से रूष्ट होता है।
लहुकम्मो चरमतणू, अणंतवीरिओ सुरिंदपणओ वि। सव्वोवायविहिन्नू, तियलोयगुरु महावीरो।। 211|| लघुकर्मा चरमतनुः, अनन्तवीर्यः सुरेन्द्रप्रणतः अपि। सर्वोपायाविधिज्ञ, त्रयलोकगुरु: महावीरः।। 211।।
गोपालमाइएहिं, अहमोहिं उईरिए महाघोरे। जो सहइ तहा सम्म, उवसग्गपरीसहे सव्वे ।। 212||
गोपालादिभिः अधमैः उदीरिते महाघोरे। यः सहते तथा सम्यक् उपसर्गपरिषही सर्वो।। 212|| अम्हारिसा कहं पुण, न सहति विसोहियव्वघणकम्मा।
इय भावंतो सम्म, उवसग्गपरीसहे सहउ।। 213 ।। अस्मादृशाः कथं पुनः, न सहन्ते विशोधितव्यं घनकर्माणः ।
इति भावयन्तः सम्यक् उपसर्गपरिषहौ सहस्व।। 21311 भगवान् महावीर लघुकर्मी, चरम शरीरी, अनंतवीर्य से युक्त, देवताओं द्वारा वन्दनीय सर्व उपाय विधि के ज्ञाता, तीन लोकों के गुरु थे। उन्होंने गौशालक आदि के द्वारा किये गये सभी प्रकार के उपसर्गों एवं परिषहों को समभाव पूर्वक सहन किया था। जब भगवान महावीर भी अधम एवं दुष्ट व्यक्तियों के उपसर्ग एवं परिषहों को समभाव पूर्वक सहन कर लेते थे तो हमारे जैसे साधुओं को उन्हें सहन क्यों नहीं करना चाहिये ? अर्थात् हमें भी उपसर्ग और परिषहों को समभाव पूर्वक सहन करना चाहिये।
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