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88 / साध्वी श्री सम्यग्दर्शना श्री
पार्श्वस्थः अवसन्नः, कुशीलसंसक्तयथाछन्दः ।
एतैः समाचीर्ण, न आचरेत् नापि प्रशंसेत् ।। 207 ।। पार्श्वस्थ, अवसन्न, कुशील मूलगुणों एवं उत्तरगुणों में दोषों से युक्त अर्थात् दूषित चारित्र वाले, स्वेच्छाचारी या उत्सूत्र प्ररुपणा करने वालों के साथ समाचीर्ण अर्थात् वंदन-व्यवहार आदि न करे और न उनकी प्रशंसा करें। टीकाकार के अनुसार उनसे ज्ञानार्जन आदि का कार्य होने पर वंदन किया जा सकता है अन्य स्थितियों में वन्दन से दोषोत्पत्ति का प्रसंग आता है।
पेज्जं भयं पओसो, पेसुन्नं रई हासो। अरई कलहो सोगो, जिणेहिं साहूण पडिकुट्ठो।। 208 ।।
प्रेम भयं प्रद्वेषः, पेशून्यं मत्सरः रतिः हासः। अरतिः कलहः शोकः जिनैः साधुनां प्रतिक्रुष्टः ।। 208 ।। जिनेश्वर परमात्मा ने साधुओं के लिये स्वजनों के प्रति प्रेम, परिषह एवं उपसर्ग आदि से भय, जीवाजीवों के प्रति आक्रोश, दुर्जनता, मात्सर्य, रति, हास्य, अरति, कलह, शोक आदि करने का निषेध किया है।
वंदिज्जंतो हरिसं, निंदिज्जतो करेज्ज न विसायं। न हि नमियानिंदियाणं, सुगई कुगइं च बिंति जिणा।। 209 ।।
वन्धमानो हर्ष, निन्द्यमानः न कुर्यात् विषादं । न हि नमित निन्दितानां, सुगतिं कुगतिं च ब्रुवते जिनाः।। 209 ।। साधु धनवानों द्वारा अभिनन्दित होने पर प्रसन्नता एवं निन्दित होने पर विषाद प्रकट न करें, क्योंकि जिनेश्वर परमात्मा ने अभिनन्दित साधु की सुगति एवं निन्दित साधु की दुर्गति होती है- ऐसा नहीं कहा है।
अप्पा सुगई साहइ. सुपउत्तो दुग्गई दुपउत्तो। तुट्ठो रुट्ठो य परो, न साहओ सुगइकुगईणं।। 210।।
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