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चंदुव्व सोमलेसो, सूरुव्व फुरंत उग्गतवत्तेओ । सीहुव्व असंखोभो, सुसीयलो चंदणवणुव्व ।। 204 ।। पवणुव्व अप्पडिबद्धः, भारंडविहंगमुव्व अप्पमत्तो । मुद्धवहुव्वऽवियारो, सारयसलिलं व सुद्धमणो ।। 204 ।। चन्द्र इव सोम्यलेश्यः सूर्य इव स्फुरत - उग्रतपतेजः । सिंह इव असंक्षोभ्यः, सुशीतलः चन्दनवनमिव || 205 || पवनं इव अप्रतिवद्दः, भारण्डविहगंइव अप्रमत्तः । मुग्धवधुवदविकारः, सागरसलिलं इव शुद्धमनः ।। 205 || साधु को आकाश की तरह आधार रहित धरती के समान सहनशील, सुमेरू पर्वतवत् निष्प्रकम्प, सागर जैसे गंभीर, चन्द्रमा के समान सौम्य, सूर्य की तरह उग्र अर्थात् तप तेज से युक्त, सिंह के समान अक्षुब्ध, चन्दन की तरह शीतल, पवन के समान अप्रतिबद्ध, भारण्ड पक्षी के तरह अप्रमत्त, मुग्ध एवं भोली वधु के समान विकार रहित तथा सागर के समान पवित्र मन वाला होना चाहिये ।
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उपदेश
पुष्पमाला / 1/87
वज्जेज्ज मच्छरं पर - गुणेसु तह नियगुणेसु उक्करिसं । दूरेणं परिवज्जसु सुहसीलजणस्स संसग्गिं ।। 206 ।। वर्जयेत् मत्सरं परगुणेषु तथा निज गुणेषु उत्कर्षम् । दूरेण परिवर्जयेत्, सुखशीलजनस्य संसर्गम् ।। 206 ।। दूसरों के गुणों की ईर्ष्या का त्याग करे एवं स्वगुणों के गर्व का त्याग करे । सुख में लिप्त लोगों के संसर्ग का दूर से ही त्याग करें ।
पासत्थे ओसन्नो, कुसीलसंसत्तनी अहाछंदो । एएहिं समाइन्नं न आयरेज्जा न संसेज्जा । । 207 ।।
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