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________________ 86/ साध्वी श्री सम्यग्दर्शना श्री तम्मि अही विहिणा, विसेसकयउज्जमो तवविहाणे | दव्वाइअपडिबद्धो, नाणादेसेसु विहरेज्जा । । 201 ।। तस्मिन् अधीते विधिना, विशेषकृतोद्यमः तपः विधाने । द्रव्यादि अप्रतिवद्धः नानादेशेषु विहरेत् ।। 201 । । विधिपूर्वक सूत्रों का अध्ययन करने के पश्चात् तपस्या के प्रति विशेष उद्यम शील होकर तथा द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव से प्रतिबन्ध रहित होकर, अनेक देशों में विचरण करें (अर्थात् एक स्थान पर चिर समय तक नहीं रहे ।) पडिबंधो लहुयत्तं, न जणुवयारो न देसविन्नाणं । नाणाईण अवुड्डी, दोसा अविहारपक्खम्मि ।। 202 || प्रतिबन्धः लघुत्वं, न जनोपकारः न देश विज्ञानं । ज्ञानादिनां अवृद्धिः, दोषा अविहारपक्षे ।। 202 ।। एक ही स्थान में रहने पर श्रावको से रागात्मक सम्बन्ध हो जाते हैं। साथ ही उस रागात्मक सम्बन्ध के कारण मुनि के वचनों का विरोध होता है, जिससे रागात्मकता दृढ़ होती है, एवं लघुता नहीं आती है तथा अहंकार पनपता है । विचरण नहीं होने से जन सामान्य का उपकार भी नहीं होता एवं अन्य देशों के विषय में जानकारी प्राप्त नहीं होती है, और न ज्ञानादि में वृद्धि हो सकती है । विहार न करने पर अनेक दोषों के आने की सम्भावना रहती है। अतः साधु को अप्रतिबन्धित होकर सदैव विहार करना चाहिए। गयणं व निरालंबो, हुज्ज धरामंडलं व सव्वसहो । मेरुव्व निप्पकपो, गंभीरो नीरनाहुव्व ।। 203 || गगनं इव निरालम्बः भवेत् धरामण्डलं इव सर्व सहः । मेरुः इव निष्प्रकम्पः, गम्भीरः नीरनाथंइव ।। 203 ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002507
Book TitleUpdesh Pushpamala
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages188
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, P000, & P050
File Size7 MB
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