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________________ उपदेश पुष्पमाला/ 85 को अपने वश में कर लेते हैं जैसे- गुणदत्त मुनि ने अपनी वाणी को वश में कर लिया। जो दुट्ठगयंदो इव, देहो असमंजसेसु वटुंतो। नाणंकुसेण रुंभइ, सो भन्नइ कायगुत्तो ति।। 198 ।। यः दुष्ट गजेन्द्रं इव, देहं असमंजेषु वर्तमानं । ज्ञानाकुशेण रून्धति, सः भण्यते कायगुप्त इति।। 198 ।। जैसे दुष्ट हाथी को अंकुश द्वारा वशीभूत किया जाता है, उसी प्रकार जिसने अपनी काया को आगमिक ज्ञान रूपी अंकुश से वश में कर लिया है उसे काय गुप्ति कहते हैं। __कुम्मुव्व सयांगे, अगोवंगाई गोविउं धीरा। चिट्ठति दयाहउँ, जह मग्गपवन्नओ साहू।। 199 ।। कूर्म इव स्वऽगे, अङ्गोपाङगानि गोपयित्वा धीराः। तिष्ठन्ति दयाऽर्थ यथा मार्गप्रपन्नः साधुः।। 199 ।। जिस प्रकार कछुआ अपने अंग-उपांगों को सदैव छिपाकर रखता है उसी प्रकार धैर्यशाली पुरूष जीवों पर करूणा करने के लिये अपनी काया का गोपन करते रहते हैं। वे मार्ग प्रपन्न साधु अपनी काय गुप्ति का कभी भी त्याग नहीं करते हैं। इय निम्मलवयकलिओ, समिईगुत्तीसु उज्जुओ साहू। तो सुत्तअत्थपोरिसि-कमेण सुत्तं अहिज्झिज्जा ।। 200 ।। इति निर्मलव्रतकलितः, समितिगुप्तिषु उद्युक्तः साधुः। ततः सूत्रार्थपौरूषीक्रमेण सूत्रं अधीयेत।। 20011 उपर्युक्त रीति से पवित्र व्रत सम्पन्न एवं समिति गुप्तियों से युक्त साधु भव्य जीवों के कल्याण के लिये एक-एक प्रहर पर्यन्त सूत्र, अर्थ तथा सूत्रार्थ का अध्ययन करें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002507
Book TitleUpdesh Pushpamala
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages188
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, P000, & P050
File Size7 MB
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