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84 / साध्वी श्री सम्यग्दर्शना श्री
जिनवचन महाविद्या-सहायिनः अथ च केऽपि सत्पुरुषाः । रुन्धन्ति तदपि विषमिव प्रतिमांप्रतिपन्न - श्राद्धः इव ।। 194 ।। तीर्थंकरों की प्रयत्न रूपी महाविद्या को अंगीकृत कर कुछ सत्पुरूष अपने चंचल मन का निरोध कर लेते हैं। जैसे प्रतिमा प्रतिपन्न श्रद्धावान् जिनदास ने विषम या विपरीत परिस्थितियों में भी अपने मन को वशीभूत कर लिया
था ।
अकुसलयणनिरोहो, कुसलस्स उईरणं तहेगत्तं । भासाविसारएहिं, वइगुत्ती वण्णिया एसा ।। 195 || अकुशलवचन-निरोधः, कुशलस्य उदीरणं तथैकत्वं । भाषाविशारदैः, वाक् गुप्ति वर्णिता एषा ।। 195 ।। हिंसाकारी या पापकारी वचनों का निरोध, अहिंसक वचन का कथन एवं मौन ऐसे त्रिरूपा भाषा विवेक को (भाषा विज्ञानियों ने) वाक् गुप्ति कहा है। दम्मंति तुरगा वि हु, कुसलेहिं गया वि संजमिज्जति । वइवग्धिं संजमिउं निउणाण वि दुक्करं मन्ने | | 196 || दम्यन्ते तुरगाऽपि खलु कुशलैः गजाअपिसंयम्यन्ते । वाग्व्याघ्रीं संयमितुं निपुणानाम् अपि दुष्करं ।। 1961 कुशल व्यक्तियों द्वारा घोडे का भी निग्रहण किया जा सकता है, हाथियों को भी अंकुश से वश में किया जा सकता है, परन्तु वाणी रूपी बाघिन को संयत करना निपुण पुरूषों के लिये भी अत्यन्त दुष्कर है।
सिद्धन्त नीइ कुसला केइ निगिण्हंति तं महासत्ता ।
सन्नायगचोरग्गह- जाणगगुणदत्तसाहुव्व । । 197 ।। सिद्धान्तनीतिकुशला केचित् निर्गुण्हन्ति तां महासत्वाः । स्वजनैः चौरै ग्रहं - जाणक - गुणदत्त - साधु इव ।। 197 || सिद्धान्त एवं नीति में कुशल कतिपय महासत्वशाली साधु वाणी रूपी बाघिन
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