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________________ उपदेश पुष्पमाला/ 83 अकुशलमनोनिरोधः, कुशलस्य उदीरणम् तथा एकत्वं । इति निष्ठितमनप्रसरा, मनगुप्तिं ब्रुवते महर्षयः।। 191 ।। मन की हिंसा, पापकारी प्रवृत्तियों का मन से निरोध करना एवं सूत्र तथा अर्थ के चिन्तन में मन को लगाना तथा मन की एकाग्रता बनाने के प्रयत्न को महर्षियों (तीर्थंकरों) ने मनोगुप्ति कहा है। अवि जलहीवि निरुज्झइ, पवणोवि खलिज्जइ उवाएणं। मन्ने न निम्मिओच्चिय, कोवि उवाओ मणनिरोहे।। 192 ।। अपि जलधि अपि निरूध्यते, पबनोऽपि स्खल्यते उपायेन। मन्ये न निर्मितो एव, कोऽपि उपायः मनोनिरोधे ।। 192।। संभव है समुद्र को पर्वत आदि के क्षेपण द्वारा आगे बढ़ने से रोका जा सकता है, वायु को भी करकुण्डी उपाय द्वारा अवरूद्ध किया जा सकता है, परन्तु मन को रोकने का कोई भी उपाय नहीं है, और है तो एक ही उपाय है, वह हैं तीर्थंकरों द्वारा कहे गये सूत्रों के अध्ययन में मन को लगाकर उसका निरोध करना, जो सर्वश्रेष्ठ उपाय है। चिंतइ अचिंतणिज्जं, वच्चइ दूरं विलं घइ गुरुं पि। गु आणरू वि जेण मणो, ममइ दुरायारमहिलव्व।। 193 ।। चिन्तयति अचिन्तनीयं, व्रजति दूरं विलङ्घयति गुरूमपि। गुरूणामपि येन मनो भ्रमति दुराचारमहिला इव।। 193 ।। यह मन अचिन्तनीय विषयों का चिन्तन करता है, विस्तीर्ण समुद्रों एवं दुर्गम पर्वतों का भी उल्लंघन कर दुराचारिणी महिला की तरह यह चंचल मन महान् व्यक्तियों को भी भटका देता है। जिणवयणमहाविज्जा-सहाइणो अह य केइ सप्पुरिसा। रुभति तं पि विसमिव, पडिमापडिवन्नसड्ढोव्व ।। 194।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002507
Book TitleUpdesh Pushpamala
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages188
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, P000, & P050
File Size7 MB
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